Last modified on 28 जुलाई 2013, at 08:42

मोहब्बत ख़ब्त है या वसवसा है / 'रसा' चुग़ताई

मोहब्बत ख़ब्त है या वसवसा है
मगर अपनी जगह ये वाक़िआ है

जिसे हम वाहेमा समझे हुए हैं
वो साया भी तिरी दीवार का है

मकाँ सर-गोशियों से गूँजते हैं
अँधेरा रौज़नों से झाँकता है

दर ओ दीवार चुप साधे हुए हैं
फ़क़त इक आलम-ए-हू बोलता है

मिरी आँखों पे ऐनक दूसरी है
कि ये तस्वीर का रूख़ दूसरा है

सुना है डूबने वाले ने पहले
किसी का नाम साहिल पर लिखा है

गुज़र किस का हुआ है जो अभी तक
दो-आलम आइना-बर-दार सा है

यु दुनिया मिट गई होती कभी की
मगर इक नाम ऐसा आ गया है

मोहब्बत है ‘रसा’ मेरी इबादत
ये मेरा दिल मिरा दस्त-ए-दुआ है