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मौसम से रूठे बादल को / हरिवंश प्रभात

मौसम से रूठे बादल को
फिर से नहीं बुलाऊँगा
मैं सावन का मेघ बनूँगा
और तुझे नहलाऊँगा।

साँसों में पुरवाई बहती, आहों में शीतलता है
नेह के नरम बिछौना बैठी काया की कोमलता है,
मुखड़े की आभा लेकर मैं
रातों को चमकाऊँगा।

नरम घास की चादर से अच्छे एहसास के मखमल हैं
तेरे हुस्न की खुशबू से जीवन में यौवन पल-पल है,
प्रेमचन्द का मैं होरी
और धनिया तुझे बनाऊँगा।

बोलो शकुंतला तुम अपनी मुंदरी कहाँ भुला आई
दमयंती बोलो किस-किस को अपनी व्यथा सुना आई,
कुछ भी नहीं अछूता कवि-
की नज़रों से बतलाऊँगा।

कंधों तक जो जुल्फ घनेरी, बादल से क्या कम लगते
इन्द्रधनुषी आंचल नभ पर क्षितिज में सुन्दरतम लगते,
स्वप्नलोक की परी हो तुम
हृदयासन पर बैठाऊँगा।

तुमसे अगर जुदाई होगी, दर्द कहाँ सह पाऊँगा
भावों के मंडप में मैं, तनहा कैसे रह पाऊँगा,
मेघदूत की रचना कर मैं कालिदास बन जाऊँगा।