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यही दो सच / अरुण आदित्य
Kavita Kosh से
कई बार साँप को रस्सी समझा है
और रस्सी को साँप
आधी रात में जब भी अचकचा पर टूटी है नींद
अक्सर हुआ है सुबह होने का भ्रम
कई सुहानी सुबहों को रात समझकर
सोते और खोते रहे हैं हम
जो नहीं मिला, उसे पाने की टोह में
बार-बार भटके समझौतों के नार-खोह में
गलत-सही मोड़ों पर कितनी ही बार मुड़े
कितनी ही बार उड़े माया के व्योम में
पर हर ऊँचाई और नीचाई से
मुझे दिखती रही है भूखे आदमी की भूख
और अपने भीतर बैठे झूठे का झूठ
भूख और झूठ दो ऐसे सच हैं
जो बार-बार खींच लाते हैं मुझे अपनी ज़मीन पर |