भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यह कौन राह / आलोक श्रीवास्तव-२
Kavita Kosh से
यह कौन राह मुझे तुम तक लाई
सूर्यास्त का यह मेघ घिरा आसमान विलीन हो रहा है
एक नौका के पाल दिखते हैं सहस्राब्दियों के पार
और तुम्हारा उठा हाथ...
मैंने कहाँ तलाशा था तुम्हें
किस युग के किस वान-प्रांतर में?
कहाँ खोई थीं, तुम ऋतुओं का लिबास ओढ़े
हिमान्धियों के पार...
स्वप्न और सत्य की परिधि पर टूट जाता है जीवन
राहें बन जाती हैं गुंजलक
एक विशाल गह्वर अन्धकार का घेर लेता पूरी पृथ्वी!
मैं तुम्हें नहीं
तुम्हारे भीतर किसी को तलाशता
शताब्दियों भटका हूँ...!