यह हमारी ज़बान को क्या हो गया है
कि इस पर से सजी-सँवरी धूप का विश्वास उठ रहा है
इससे सोंधी मिट्टी की आशा टूट रही है
इस पर नक्षत्र चढ़ते कदम भरोसा नहीं करते
इससे नई निगाहों को आगे राह नहीं दिखती।
यह हमारी ज़बान को क्या हो गया है
कि इसके रहते एक सफ़ेद मुँहचढ़ी ज़बान
देश की अलिजिह्वा तक का रंग
सफ़ेद डाई की तरह बदल रही है
वह शब्दों के तैलीय तरण-ताल में नहाकर
गावों तक आधुनिकता की कुलाँचे मार रही है
जगह-जगह भूमण्डलीकरण के कैम्प लगाकर
सब की नसों में कोकीन डाल रही है
और एक अरब लोगों की चेतना कोम्-आ में पहुँचाकर
उनके ख़ून-पसीने की सारी रंगत दुह रही है।
यह हमारी ज़बान को क्या हो गया है
कि इसके ऊपर एक तेज़ी से फैलनेवाली बहुत महीन
असाध्य, परजीवी पर्त उग आई है
जो दिनोंदिन और ढीठ होती जा रही है।
सिर पर मँडरा रही है
आँखों में धूल झोंक रही है
कानों में कौड़ी डाल रही है
होंठों पे थिरक रही है
छाती पर मूँग दल रही है
जो हाथों को धोखे से बाँध रही है
पैरों पर कुल्हाड़ी चला रही है
और जो विषकन्या की तरह
हमारे देश के साथ अपघात कर रही है।
यह हमारी ज़बान को क्या हो गया है
कि केवल पन्द्रह वर्षों का झाँसा देनेवाली
जैसे अब घर-बैठा बैठने पर तुल गई है
वह आज भी हमारी जीभ पर
षड्यन्त्र का कच्चा जमींकंद पीस रही है
हमारी सारी सोच-समझ हलक़ के गर्त में ढकेल
ख़ुद बाहर बेलगाम हो रही है
जो हमारे मन की नहीं कहती
हमारे मुख को नहीं खोलती
हमारे चेहरे की नहीं लगती
और जो आकाशबेल की तरह
हमारे देश के मानसवृक्ष पर फैलती जा रही है।
यह हमारी ज़बान को क्या हो गया है
कि इसे सभी राजनगर हर साल एक बार
अपनी कमर झुकाकर प्रणाम करते हैं
स्तुति का आयोजन करते हैं
गले में वचन-मालाएँ लाद देते हैं
कुछ दिनों के तर्पण से कितना तृप्त करते हैं
फिर पूरे साल यह पिछलग्गू बनी दौड़ी फिरती है
राजमहिषी का पद छोड़ चाकरी करती है
और जो दूसरी सिरचढ़ी है, जिसकी तूती बोलती है
देश की बोलती बंद करने का दहशत फैलाती है।
यह हमारी ज़बान को क्या हो गया है
जो रूपवान-गुणवती भिखारिन की तरह
गली-कूचे में धक्के खा रही है
हर कहीं बे-आबरू हो रही है
हर मोड़ पर आँसू बहा रही है
जिसे देख पालतू कुत्ते भौंकते हैं
आवारा दौड़ा-दौड़कर नोचते हैं
आख़िर, यह सब क्या हो गया है
यह हमारी ज़बान को क्या हो गया है।