भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह रचना / कर्णसिंह चौहान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


अब तुम ही कुछ करो
तुम्हारा भरोसा है ।

सूरज के पास गया
फिर चंदा के
तारों की पंचायत में फरियाद सुनाई
रास्ते में चांदनी से की सिफारिश
जंगल
पहाड़
वादियां
ताल, नद, समुद्र
कहां-कहां नहीं गया
बात कुछ बनी नहीं ।

सभी तलाश में थे
कविता नहीं
पंक्ति, प्रतीक या बिंब
बन जाने की अभिलाषा में थे ।

इसलिए अब आया हूं तुम्हारे पास
तुम्हारा भरोसा है।

कैसा हो
इस चराचर में फैल जाओ
फिर बताओ
कौन कहाँ है ?

कहते हो तो यही सही
सरगम में ‘स’ से शुरु कर
‘न’ पर आ जाऊँ ।

इतनी भी क्या जल्दी है
देखो न छूट गया
यह पूरा आकाश
ये घुमड़ते बादल
और मेखला पर्वत की
नदी किनारे के शैवाल
खिली धूप
कितना कुछ छूट रहा ।

छूट रहीं अनगिन पांतें
उपमाएं
और लहराती लय
आखिर जाना कहाँ है
राग जब छिड़ ही गया
उसे क्षितिज तक जाने दो
अनंत है गोचर
अनंत है जीवन
दिन, बरस, युगांतर
अतृप्त रह जाए
कोई गम नहीं
इस क्षण में जीने दो ।

घिर रही है काली
घनघोर घटाएं
फैल रही फूलों के देश की
महकती हवा
आर-पार
यह आकाश छूता सधा पहाड़
वादियों की छाया
निर्लिप्त नींद में सोयी
दिशाएं
बांक में खिंचे इंद्रधनु
यह नुकीली पहाड़ी
मैदान में उतर खो गई है ।
उर्बर घाटी में
रक्ताभ लाल गुलाब खिले
स्पर्श कोमल पंखुड़ियां
कब से प्यासी हैं
इन्हें कुछ खिलने दो ।

यहीं हैं
स्तारा प्लानीना की सुंदर श्रंखलाएं
चेरी के वृक्ष
रस के भार से झुके हुए
यह पतली रोसित्सा नदी की धार
वारना की सुनहरी रेत में
बिला रही है
फैले किनारों में सिमटा
रहस्य भरा सागर
इस तक जाने दो ।

इसके अक्षय भंडार से
सजेगी रह रचना ।