यह है !... / कंस्तांतिन कवाफ़ी / सुरेश सलिल
अनजान, अन्तिओक<ref>सीरिया की प्राचीन राजधानी</ref> में अजनबी, इदिसा<ref>इदिसाम्कपें — ओस्रोइनी की राजधानी</ref> से आया यह मानुस
लिखता रहता, लिखता ही नज़र आता हरदम !
और अन्ततः समापन हुआ अन्तिम सर्ग का ।
कुल कविताएँ तिरासी !
किन्तु इतनी ज़्यादा लिखाई, इतनी कविताई
यूनानी भाषा में पद-रचना का भयानक तनाव
थकान से चूर-चूर कर डाला इस सबकुछ ने बेचारे कवि को।
हाथ किन्तु आए ढाक के तीन पात !
तभी अनायास एक उदात्त विचार ने
उबारा कवि को हताशा से : ‘यह है!...’
लूसिअन<ref>एक प्राचीन सोफ़िस्ट [हेत्वाभासी] लेखक-चिन्तक</ref> ने जिसे कभी सुना था नींद में
[1909]
इस कविता का रूपक कवि-कल्पित है। लूसिअन की कृति ‘दि ड्रीम’ में एक प्रसंग है कि स्वप्न में कल्तुर ने कहा — ‘‘तुम कहीं भी जाओ, भले विदेश, अनदेखे नहीं रहोगे। मैंने तुम पर पहचान का एक चिह्न अंकित कर दिया है । जो कोई तुम्हें देखेगा, तुम्हारी ओर संकेत करके अपने साथी से कहेगा : ‘यह है !...’ [that’s the man!]
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल