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याचक जीवन / योगेन्द्र दत्त शर्मा
Kavita Kosh से
घिसती-रिसती रही जिन्दगी,
कुछ न बचा अवशेष
सपने होते गये, नियति के
उलझे-उलझे केश!
फीतों वाली फाइल रखती है
खुलने की शर्त
दस्तावेजों की छाती पर
चढ़ी समय की पर्त
याचक-सा जीवन, सरकारी
दफ्तर-सा परिवेश!
ताड़-सरीखी इच्छाओं की
बौनी-बौनी बांह
लम्बी-चौड़ी दोपहरी की
सिमटी-सिकुड़ी छांह
बाढ़ग्रस्त-से तन में मन है
सूखाग्रस्त प्रदेश!
खिलने से मुरझाने तक का
यह संदर्भ अनाम
मंडराता रहता है सिर पर
पल-छिन आठों याम
दे जाता है मौसम अक्सर
मूक शोक-संदेश!