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युग और तुम / माखनलाल चतुर्वेदी

युग तुम में, तुम युग में कैसे झाँक रहे हो बोलो?
उथल-पुथल तब हो कि समय में जब तुम जीवन घोलो।
तुम कहते हो बलि से पहले अपना हृदय टटोलो,
युग कहता है क्रान्ति-प्राण! पहिले बन्धन तो खोलो।
तेरी अँगुली हिली, हिल पड़ा
भावोन्मत्त जमाना
अमर शान्ति ने अमर
क्रान्ति अवतार तुझे पहचाना।
तू कपास के तार-तार में अपनापन जब बोता,
राष्ट्र-हृदय के तार-तार में पर वह प्रतिबिम्बित होता,
झोपड़ियों का रुदन बदल देता तू मुसकाहट में,
करती है श्रृंगार क्रान्ति तेरी इस उलट-पुलट में।
उस-सा उज्ज्वल, उस-सा
गुणमय, लाज बचाने वाला
है कपास-सा परम-मुक्ति का
तेरा ताना-बाना।
अरे गरीब-निवाज, दलित जी उठे सहारा पाया,
उनकी आँखों से गंगा का सोता बह कर आया,
तू उनमें चल पड़ा राष्ट्र का गौरव पर्व-मनाकर
उन आँखों में पैठ गया तू अपनी कुटी बनाकर।
तुझे मनाने कोटि-कोटि
कंठों ने क्या-क्या गाया
जो तुझको पा सका--
गरीबों के जी में ही पाया।
है तेरा विश्वास गरीबों का धन, अमर कहानी--
तो है तेरा श्वास, क्रान्ति की प्रलय लहर मस्तानी।
कंठ भले हों कोटि-कोटि, तेरा स्वर उनमें गूँजा
हथकड़ियों को पहन राष्ट्र ने पढ़ी क्रान्ति की पूजा।
बहिनों के हाथों जगमग है
प्रलय-दीप की थाली;
और हमारे हाथों है--
माँ के गौरव की लाली।

रचनाकाल: श्री बेनीपुरी को, गाँधी-जयंती के लिए, पटना-१९३५