भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यूँ बहार आई / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यूँ बहार आई है इस बार कि जैसे क़ासिद
कूचा-ए-यार से बे-नैलो-मराम आता है

हर कोई शहर में फिरता है सलामत-दामन
रिंद मयख़ाने से शाइस्ता-ख़राम आता है

हवसे-मुतरिबो-साक़ी मे परीशां अकसर
अब्र आता है कभी माहे-तमाम आता है

शौक़वालों की हज़ीं महफिले-शब में अब भी
आमदे सुबह की सूरत तेरा नाम आता है

अब भी एलाने-सहर करता हुआ मस्त कोई
दाग़े-दिल कर के फ़रोज़ाँ सरे-शाम आता है