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ये तुम ही थे न / स्मिता सिन्हा

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ये तुम ही थे न
जो कहते थे
कि तुम्हारा
यह जानना ज़रुरी है
कि कहाँ - कहाँ
और क्यों होना है तुम्हें
कि हर उस जगह
जहाँ तुम होती हो
हमेशा वह जगह
तुम्हारी नहीं होती...

तुम ही थे न
जो कहते थे
कि बेख्याली में
हँस तो देती हो
लेकिन कभी
देखा है तुमने
यूँ ही बेवजह
क़तरे भर हँसी को
खुद तक आते...
यूँ ही बेतहाशा
दौड़ती जाती हो
उड़ती धूल में
जबकि रेत के समंदर
कभी नहीं सहेजते
पैरों के निशान...

मैं कहाँ तक
और कितना हिसाब रखती
अपने होने का,न होने का
हँसने का,रोने का,
दौड़ने का,गिरने का,सम्भलने का...
वैसे झूठ कहा था न तुमने
कि उस आसमां के पार है
एक रंगीन खुशगवार मौसम
एक उजली सी भोर
और कुछ पीली चटकीली धूप भी
मैं सौ सौ आसमां के पार
जाकर लौट आयी हूँ
कई कई बार
कि वहाँ भी
पर्वतों में दरार देखें हैं मैंने
देखें हैं उदास पक्षी
और कुम्हलाए फूल...

इस जकड़न में
मैं अब नहीं ढूँढ़ती तुमको
टटोलती हूँ तो खुद को
और निश्चिंत हो जाती हूँ
खुद के करीब आकर
यकीन मानो
सबकुछ ख़त्म हो जाने के बाद भी
उस कठोर बंजर में भी
मैं बचा कर रखूंगी
अपने हिस्से से
तुम्हारे लिये थोड़ी सी नमी
लेकिन जब भी मैं
हँसने का स्वांग करती हूँ
तुम रोने क्यों लगते हो...