यौवन का मधुवन / रचना उनियाल
पुलक रहा यौवन का मधुवन, ठिठक रहें जब दो दृग हों।
चंचल चपला अंक समाये, भरे कुलाँचे हिय मृग हों।।
दम-दम दमक रही परछाई,
विश्वासों के आँगन में।
हरीतिमा का आँचल झलका,
नेह प्रीत के सावन में।।
तरुवर शाखा संग रहेंगे, निष्ठाएँ क्यों डगमग हों।
पुलक रहा यौवन का मधुवन, ठिठक रहें जब दो दृग हों
दिनकर की किरणों के जैसा,
साथ हमारा जीवन में।
कर्तव्यों की हरियाली को,
रोपेंगे ये तन-मन में।
वचन कर्म के हर फेरों में, रमे रहें जब दो पग हों।
पुलक रहा यौवन का मधुवन, ठिठक रहें जब दो दृग हों
यदि जलधर की प्रति ध्वनियों का,
कोलाहल मन प्राण हरे।
सागर जैसे वसुधा उर को,
कलुष बोल के बाण हरे।।
अवगुण कंचन हृदय बताना, मानूँ त्रुटि घर जगमग हों।
पुलक रहा यौवन का मधुवन, ठिठक रहें जब दो दृग हों।।
तरुणाई की पुरवाई को,
बंधन रागों का साधे।
खट्टी मीठी नेह फुहारें,
सुरभित चंदन ही बाँधे।।
नयनों में आदर का आलय, पुलकित उपवन के खग हों।
पुलक रहा यौवन का मधुवन, ठिठक रहें जब दो दृग हों।।