Last modified on 18 दिसम्बर 2014, at 20:29

रंदे से अग्नि की छिलपटें उतारते / नीलोत्पल

मुक्तिबोध के लिए

तपते रेगिस्तान में तुम्हारी आवाज़
रिपसती हमारी मुठ्ठिया से

कोई भुलावे में न रहे
दुनिया के हंगामे में
वह भूला या बिसरा है

वह याद आएगा
एक दिन हमारी लजाती आँखों को
सोए रक्त में थरथराता

वह याद आएगा
मंदिर के बाहर
ईश्वर से ज़िरह करते
अंततः ख़ारिज़ करने के लिए
वह उठेगा
और हो जाएगा भीड़ में शामिल
जैसे मुठ्ठियों का कसाव
जैसे नहीं कहने की ताक़त

वह याद आएगा
देने के लिए नहीं शुभ प्रतिपल या निरंक कामनाएं
विकट सरों पर मंडराने के लिए भी नहीं
नहीं ध्वस्त प्रतिमाओं को गढ़ने
बीड़ी की तलब लिए
मिल जाएगा वह तुम्हें चौराहों पर
पराजय का गीत लिखते हुए

मुठ्ठियों से फिसलती रेत में
हमारे ईमान को चुभता
वह याद आएगा

चुप रहो और सुनो
भीतर पकी हुई दीवार से पलस्तर का गिरना
ढहना हमारी चेतना का