रचना है / हरीश भादानी
जिन्हें अपने समय का आज रचना है
अकेली फैलती
आंखें दुखाती चाह को
सूने दुमाले से
सुबह आंजे उतरना है
जिन्हें अपने समय का आज रचना है
आंगने हंसती
हक़ीक़त से
तक़ाजों का टिफिन लेकर
सवालों को
मशीनों के बियाबां से गुजरना है
जिन्हें अपने समय का आज रचना है
तगारी भर जमी
आकाश रखते हाथ को
होकर कलमची
गणित के उपनिषद की
हर लिखावट को बदलना है
जिन्हें अपने समय का आज रचना है
आदमी से आदमी की
पहचान खाएं लोग
आदमी से आदमी को
तोड़ने का शौक साजें लोग
तोड़ी गई हर हर इकाई को
धड़कता एक सम्बोधन ग़ज़लना है
जिन्हें अपने समय का आज रचना है
ठहर जाएं स्वप्न भोगें
वे जिन्हें
इतिहास जीना है
कस चलें संकल्प में छैनी
जिन्हें अपने समय का आज रचना है