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रसायन / नीलेश रघुवंशी

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मैं डाकिया बन जाना चाहती हूँ
सुख और दुख को अपने झोले में भरकर
हर घर की चौखट पर सुख को धर देना चाहती हूँ
फिर क्या
दुख को अपने थैले में रखे रहना चाहती हूँ ?
नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए मुझे
दुख से ही निकलेगा सुख उस चौखट का
जो सुख की अँगड़ाई में अकड़ रही है
दुख उसके पाँव फैला देंगे और
सुख लपककर बैठ जाएगा दुख की गोद में
तब दुख और सुख मिलकर पैदा करेंगे एक रसायन
ऐसा रसायन जो
बनाएगा जीवन को धारदार और पैना

बुधवार, 29 दिसंबर 2004