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राग-विराग - 5 / विमलेश शर्मा

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पूर्वा के बहने पर
कोई दूत आसमान में विचरता है
किसी नम नमक से ख़ुद को भरता है

निज अंक भरने की यह क्रिया
किसी पीडा का आदान-प्रदान है!

हवा में तिरते नव किसलय
झूलते हैं कोमल शाखों की अलगनियों पर
पूर्वांचल के बादल जब झमककर बरसते हैं
वे सुनते हैं उस सीले आल्हा संदेश को
जो किसी दूर गाँव से उनके लिए आया है

उलट कर संदेश काठ में
वे मुस्कुराते हैं
बढ़ते हैं
और अंतत:
झर जाते हैं
पत्तों का तिरना, खिलना, बढ़ना, झरना
प्रकृति का ही संदेश हैं!
और उसे सुनना, गुनना, उलटना सार्वभौमिक क्रियाएँ हैं!
एकाकी शाम का थिर होना
झील में मौन का घुलना
और फिर दो झीलों का झील (अद्वैत) हो जाना
दो नहीं एक ही क्रिया है
अंतर द्रष्टा-भोक्ता का है

कोई महसूस करता है
कोई बरसता है!
दरअसल बारिशें बाहर की नहीं
भीतर की यात्राएँ हैं
उन्हें जीने के लिए
बूँद-बूँद बारिश होना पड़ता है
डूबना, टूटना, मचलना और बिखरना होता है

आवाज़ तो कभी
बेआवाज़!