राजा-रत्नसेन-सती-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी
मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी
कै बसंत पदमावति गई । राजहि तब बसंत सुधि भई ॥
जो जागा न बसंत न बारी । ना वह खेल, न खेलनहारी ॥
ना वह ओहि कर रूप सुहाई । गै हेराइ, पुनि दिस्टि न आई ॥
फूल झरे, सूखी फुलवारी । दीठि परी उकठी सब बारी ॥
केइ यह बसत बसंत उजारा ?। गा सो चाँद, अथवा लेइ तारा॥
अब तेहि बिनु जग भा अँधकूपा । वह सुख छाँह, जरौं दुख-धूपा ॥
बिरह-दवा को जरत सिरावा ?। को पीतम सौं करै मेरावा ?॥
हिये देख तब चंदन खेवरा, मिलि कै लिखा बिछोव ।
हाथ मींजि सिर धुनि कै रोवै जो निचींत अस सोव ॥1॥
जस बिछोह जल मीन दुहेला । जल हुँत काढि अगिनि महँ मेला ॥
चंदन-आँक दाग हिय परे । बुझहिं न ते आखर परजरे ॥
जनु सर-आगि होइ हिय लागे । सब तन दागि सिंघ बन दागे ॥
जरहिं मिरिग बन-खँड तेहि ज्वाला । औ ते जरहिं बैठ तेहि छाला ॥
कित ते आँक लिखे जौं सोवा । मकु आँकन्ह तेइ करत बिछौवा ॥
जैस दुसंतहि साकुंतला । मधवानलहि काम-कंदला ॥
भा बिछोह जस नलहि दमावति । मैना मूँदि छपी पदमावति ॥
आइ बसंत जो छिप रहा होइ फूलन्ह के भेस ।
केहि बिधि पावौं भौंर होइ, कौन गुरू-उपदेस ॥2॥
रोवै रतन-माल जनु चूरा । जहँ होइ ठाढ, होइ तहँ कूरा ॥
कहाँ बसंत औ कोकिल-बैना । कहाँ कुसुम अति बेधा नैना ॥
कहाँ सो मूरति परी जो डीठी । काढि लिहेसि जिउ हिये पईठी ॥
कहाँ सो देस दरस जेहि लाहा ?। जौं सुबसंत करीलहि काहा ?॥
पात-बिछोह रूख जो फूला । सो महुआ रोवै अस भुला ॥
टपकैं महुअ आँसु तस परहीं । होइ महुआ बसमत ज्यों झरहीं ॥
मोर बसंत सो पदमिनि बरी । जेहि बिनु भएउ बसंत उजारी ॥
पावा नवल बसंत पुनि बहु बहु आरति बहु चोप ।
ऐस न जाना अंत ही पात झरहिं, होइ कोप ॥3॥
अरे मलिछ बिसवासी देवा । कित मैं आइ कीन्ह तोरि सेवा ॥
आपनि नाव चढै जो देई । सो तौ पार उतारे खेई ॥
सुफल लागि पग टेकेउँ तोरा । सुआ क सेंबर तू भा मोरा ॥
पाहन चढि जो चहै भा पारा । सो ऐसे बूडै मझ धारा ॥
पाहन सेवा कहाँ पसीजा ?। जनम न ओद होइ जो भीजा ॥
बाउर सोइ जो पाहन पूजा । सकत को भार लेइ सिर दूजा ?॥
काहे न जिय सोइ निरासा । मुए जियत मन जाकरि आसा ॥
सिंघ तरेंदा जेइ गहा पार भए तेहि साथ ।
ते पै बूडे बाउरे भेंड-पूंछि जिन्ह हाथ ॥4॥
देव कहा सुनु, बउरे राजा । देवहि अगुमन मारा गाजा ॥
जौं पहिलेहि अपने सिर परई । सो का काहुक धरहरि करई ॥
पदमावति राजा कै बारी । आइ सखिन्ह सह बदन उघारी ॥
जैस चाँद गोहने सब तारा । परेउँ भुलाइ देखि उजियारा ॥
चमकहिं दसन बीजु कै नाई । नैन-चक्र जमकात भवाँई ॥
हौं तेहि दीप पतंग होइ परा । जिउ जम काढि सरग लेइ धरा ॥
बहुरि न जानौं दहुँ का भई । दहुँ कविलास कि कहुँ अपसई ॥
अब हौं मरौं निसाँसी, हिये न आवै साँस ।
रोगिया की को चालै, वेदहि जहाँ उपास ?॥5॥
आनहि दोस देहुँ का काहू । संगी कया, मया नहिं ताहू ॥
हता पियारा मीत बिछोई । साथ न लाग आपु गै सोई ॥
का मैं कीन्ह जो काया पोषी । दूषन मोहिं, आप निरदोषी ॥
फागु बसंत खेलि गई गोरी । मोहि तन लाइ बिरह कै होरी ॥
अब कस कहाँ छार सिर मेलौं ?। छार जो होहुँ फाग तब खेलौं ॥
कित तप कीन्ह छाँडि कै राजू । गएउ अहार न भा सिध काजू ॥
पाएउ नहिं होइ जोगी जती । अब सर चढौं जरौं जस सती ॥
आइ जो पीतम फिरि गा, मिला न आइ बसंत ।
अब तन होरी घालि कै, जारि करौं भसमंत ॥6॥
ककनू पंखि जैस सर साजा । तस सर साजि जरा चह राजा ॥
सकल देवता आइ तुलाने । दहुँ का होइ देव असथाने ॥
बिरह -अगिनि बज्रागि असूझा । जरै सूर न बुझाए बूझा ॥
तेहि के जरत जो उठै बजागी । तिनउँ लोक जरैं तेहि लागी ॥
अबहि कि घरी सो चिनगी छूटै । जरहिं पहार पहन सब फूटै ॥
देवता सबै भसम होइ जाहीं । छार समेटे पाउब नाहीं ॥
धरती सरग होइ सब ताता । है कोई एहि राख बिधाता ॥
मुहमद चिंनगी पेम कै ,सुनि महि गगन डेराइ ।
धनि बिरही औ धनि हिया, तहँ अस अगिनि समाइ ॥
हनुवँत बीर लंक जेइ जारी । परवत उहै अहा रखवारी ॥
बैठि तहाँ होइ लंका ताका । छठएँ मास देइ उठि हाँका ॥
तेहि कै आगि उहौ पुनि जरा ।लंका छाडि पलंका परा ॥
जाइ तहा वै कहा संदेसू । पारबती औ जहाँ महेसू ॥
जोगी आहि बियोगी कोई । तुम्हरे मँडप आगि तेइ बोई ॥
जरा लँगूर सु राता उहाँ । निकसि जो भागि भएउँ करमुहाँ ॥
तेहि बज्रागि जरै हौं लागा । बजरअंग जरतहि उठि भागा ॥
रावन लंका हौं दही, वह हौं दाहै आव ।
गए पहार सब औटि कै, को राखै गहि पाव ?॥8॥
(1) उकठी = सूख कर ऐंठी हुई । अथवा = अस्त हुआ । खेवरा = खौरा हुआ, चित्रित किया या
लगाया हुआ ।
(2) हुँत =से । परजरे = जलते रहे । सर-आगि = अग्निबाण । सब...दागे = मानों उन्हीं अग्निबाणों से झुलसकर सिंह के शरीर में दाग बन गए हैं और बन में आग लगा करती है । कितते आँक...सोवा = जब सोया था तब वे अंक क्यों लिखे गए; दूसरे पक्ष में जब जीव अज्ञान-दशा में गर्भ में रहता है तब भाग्य का लेख क्यों लिखा जाता है । दमावति = दमयंती ।
(3) कहाँ सों देस....लाहा ? = बसंत के दर्शन से लाभ उठानेवाला अच्छा देश चाहिए, सो कहाँ है ? करील के वन में वसंत के जाने ही से क्या ? आरति = दुःख । चोप =चाह ।
(4) ओद = गीला, आर्द्र । तरेंदा = तैरनेवाला काठ बेडा ।
(5) गाजा = गाज, बज्र । धरहरि = धर-पकड, बचाव । गोहने = साथ या सेवा में । अपसई =गायब हो गई । निसाँसी = बेदम । को चालै = कौन चलावै ?
(6) हता = था, आया था । सर = चिता ।
(7) ककनू = एक पक्षी जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि आयु पूरी होने पर वह घोंसले में बैठकर गाने लगता है जिससे आग लग जाती है और वह जल जाता है । पहन = पाषाण,पत्थर। पलंका = पलँग, चारपाई अथवा लंका के भी आगे`पलंका' नामक कल्पित द्वीप ।