ईश्वर दत्त अंजुम साहिब और मुझ में बहुत सी समानताएं हैं। कुछ एक का वर्णन यहां करता हूँ। अंजुम साहिब का जन्म पंजाब के ज़िला गुरदासपुर के क़स्बा शकरगढ़ के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। क़स्बा शकरगढ़ इसी नाम की एक तहसील का सदर मक़ाम था। मेरा जन्म भी इसी क़स्बा के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। उन्हों ने डिस्ट्रिक्ट बोर्ड मॉडल मिडल स्कूल शकरगढ़ में शिक्षा प्राप्त की, मैं भी इसी स्कूल का विद्यार्थी था। श्री अंजुम के पिता पं. त्रिलोक चंद शकरगढ़ में वकालत करते थे, मेरे पिता जी भी शकरगढ़ में वकील थे। अंजुम साहिब की छोटी बहन का नाम शकुन्तला था, मेरी बड़ी बहन का नाम शकुन्तला था। हम दोनों उर्दू शायरी में गहरी रुचि रखते थे। समानताएं और भी बहुत सी हैं किन्तु मैं प्यारे पाठकों को ज़ियादा देर भ्रम में नहीं रखूंगा। श्री ईश्वर दत्त अंजुम मेरे सगे बड़े भाई हैं। जब वह लाहौर के विक्टोरिया डायमंड जुबली टेक्निकल इंस्टिट्यूट में मकैनिकल इंजीनियरिंग का डिप्लोमा कोर्स कर रहे थे तो उर्दू शायरी की बहुत सी किताबें और मैगज़ीन शकरगढ़ लाया करते थे और अपने बहुत प्यारे तरन्नुम में झूम झूम के पढ़ा करते थे। मैं सुनता तो मुझे बहुत अच्छा महसूस होता। उर्दू के शब्द मुझे अच्छे लगते थे। वहीं से मेरे दिल में उमंग पैदा हुई कि मैं शायर बनूँगा। खैर! वक़्त बड़े मज़े से गुज़र रहा था । हर एक छोटे से पुर-अम्न क़स्बा में रह रहे थे। सभी क़स्बा वासी एक दूसरे को जानते थे और एक दूसरे के लिए हमदर्दी भरे जज़्बात रखते थे। हिन्दू थे, मुसलमान थे, एक घर सिक्खों का भी था। आबादी बढ़ हज़ार के करीब थी। कभी कोई फसाद नहीं हुआ। अचानक मुस्लिम लीग के सियासी किस्म के जलसे होने लगे। धुआं धार तकरीरें होने लगीं, माहौल गर्माने लगा। मैं कोई तक़रीर सुनता तो इतना ही समझ पाता कि " इके मुर्ग है खुश-लहजा कि कुछ बोल रहा है"।
पाकिस्तान का क़ियाम अमल में आया। खून की नदियां बहने लगीं। हिन्दू मुसलमान एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये। रास्तों पर कुश्तों के पुश्ते लग गये। ज़ालिमों के ज़ुल्म से चंगेज़ियत भी शर्मा गई। मकीनों को ज़मीन के हाल पर खून रोने लगा। "ज़रा सी देर में क्या हो गया ज़माने को"। ज़ुल्म की आंधियां चल रही थीं। बस्तियां नज़रे-आतिश हो रही थी। नन्हें बच्चों और औरतों पर खंजर आज़माई हो रही थी। मां बहन के पैरहन उतारे जा रहे थे। जिन छातियों से दूध पी कर जवान हुए थे, उन्हें काटा जा रहा था। नौजवान लड़कियों का अपहरण हो रहा था। वक़्त की आंख ने कत्ल और खूं-रेज़ी का यर नज़ारा भी देखा कि इंसानी सिरों का हार रेलवे इंजन के गले में पहना कर रेल गाड़ियां रवाना की जा रही थीं और जवाब में वैसी ही गाड़ियां मौसूल हो रही थीं। सभ्य और पढ़े लिखे लोगों की ज़बानें भी शोले उगल रही रही थीं। "कोई हिन्दू कोई सिख कोई मुसलमां निकला / एक चालीस करोड़ों में न इंसां निकला"। फिर आबादी के तबादला (स्थान्तरण) का दौर शुरू हो गया। बंटवारे में तहसील शकरगढ़ पाकिस्तान को मिल गई। भारत से पलायन कर के जाने वाले मुहाजिरों ने हमारे घरों को घेर लिया। दरवाजों पर हथियार-बन्द मुहाजिर बैठ गये। हम ने अंदर से दरवाजों को ताले लगा लिए। शकरगढ़ की हिन्दू आबादी की हिफाज़त के लिए नौजवान हिन्दू लड़कों का एक जत्था बनाया गया। श्री अंजुम उस जत्थे के मुखिया बनाए गये। ऐसे में हमारा एक संस्कृत टीचर पं. शिव नन्दन शर्मा रंग रेज़ का भेस बना कर शकरगढ़ से निकलने में कामयाब हो गया। और अमृतसर में पं. नेहरू से मिला और हालात की जानकारी दी। अगली सुब्ह एक हवाई जहाज ने शकरगढ़ पर उड़ानें भरीं। लोगों के हौसले बुलन्द हुए। दहशत गर्द घबराये। शाम होते होते फ़ौज़ की सोलह जीपें जिन में 48 फोजी जवान थे शकरगढ़ के सरकारी डाक बंगले में ख़ैमा-ज़न हो गये। अंग्रेज़ कमांडर ने इलाके का निरीक्षण किया और कस्बे के लोगों को 23 अगस्त 1947 को डाक बंगला पहुँचने के लिए कहा। फ़ौज़ की हिफाज़त में लोगों का काफ़िला रियासत जम्मू-कश्मीर के बॉर्डर की और रवाना हुआ। घर से हम ऐसे आलम में निकले,-" कुछ ऐसे मुज़तरिबुल-हाल-ओ-दिल-मलूल गये / कि घर की खिड़कियां भी बन्द करना भूल गये"। यहां तक कि हम अपने चचा स्व. पं. गिरधारी लाल दर्द की बयाज़ ( वह नोट बुक जिस में शायर अपने शेर नोट करता है) भी साथ लाना भूल गये। इस प्रकार हमारे चचा का कलाम हमेशा हमेशा के लिए हमारे हाथों से निकल गया और हम उन की शायरी से हमेशा के लिए महरूम हो गये। शकरगढ़ से पैदल चल कर हम अपने माता पिता और दूसरे सदस्यों के साथ सांबा, कठुआ, माधोपुर, सुजानपुर से होते हुए 2 सितम्बर 1947 को पठानकोट पहुंचे "दर्द के मारे हुए हिन्दोस्तां में आ गये / ज़िंदा रहने के लिए बागे-अमां में आ गये" (पं. रतन पंडोरवी)
पठानकोट में कुछ मुद्दत बे-कार घूमने के बाद मैं न हिन्दू कॉलिज, अमृतसर में दाखिला ले लिया। अंजुम साहिब को देहली इलेक्टिक सप्लाई अण्डर टेकिंग में सर्विस मिल गई। पिता जी पठानकोट में वकालत करने लगे। मेरी बड़ी बहन पठानकोट में बयाही हुई थी, इसी कारण हम यहां आए थे और यहीं के हो गये।
आइये! श्री अंजुम की शायरी का जायज़ा लें। उन की शायरी के आइना में उन की सूरत देखें। ईश्वर दत्त अंजुम साहिब का शेर है-
कोई भी अंजुमन हो उस में मुझे
मर्तबा शायरी से मिलता है।
बहुत ख़ूब शेर है और सच्चाई पर निर्धारित है। अब मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर मुलाहिज़ा हो। फरमाते हैं "सौ साल से है पेशाए-आबा सिपह गरी / कुछ शायरी ज़रीयाए-इज़्ज़त नहीं मुझे"। मिर्ज़ा ग़ालिब के पूर्वज फ़ौज़ में होने के कारण तलवार के धनी थे। मिर्ज़ा के विचार में तलवार के धनी का दर्जा एहले-क़लम से ज़ियादा है। वह अपने बाप दादा के जंगी कारनामों पर गर्व करते थे। मिर्ज़ा ग़ालिब के पिता मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खाँ अलवर के राजा की फ़ौज़ में थे और 1802 में एक लड़ाई में मारे गये थे। मिर्ज़ा ग़ालिब के चचा नसरुल्ला बेग मरहट्टों की ओर से आगरा के किलादर थे। बाद में वह अंग्रेज़ फ़ौज़ में 400 सवारों के रसालदार मुक़र्रर हुए और 1806 में एक लड़ाई में मारे गये। मिर्ज़ा ग़ालिब फरमाते हैं कि सौ साल से मेरे पूर्वजों का पेशा सिपाह गरी है, शायरी मेरे लिए कोई इज़्ज़त का ज़रीया नहीं। इस शेर में मिर्ज़ा ग़ालिब ने अस्ल में बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद शैख़ इब्राहिम ज़ौक़ देहलवी पर चोट की है। ज़ौक़ शायरी में बादशाह के तनख्वाह-दार थे और इस नौकरी को इज़्ज़त का ज़रीया समझते थे। मिर्ज़ा ने लतीफ़े अंदाज़ में इज़्ज़त के इस ज़रीया को एक तरह से ठुकरा दिया है। बहरहाल दोनों शेर अपनी अपनी जगह ख़ूब हैं। यहां स्व. अर्श मलसियानी का एक ऐसा शेर दर्ज करता हूँ " जी चाहता है 'अर्श' करूँ तर्के-शायरी / लेकिन यही ज़रीया-ए-इज़्ज़त है क्या करूँ"। बहुत ख़ूब।
आज कल ज़िन्दगी करना कितना कठिन हो गया है उस का नक़्शा अंजुम साहिब ने बड़े उम्दा तरीके से और बहुत अच्छे शब्दों में इतनी सलीक़ा-शआरी से खेंचा है कि हक़ीक़त खुल कर सामने आ गई है। फरमाते हैं-
माथे से पोंछते हैं पसीना ब-हर कदम
तय जिंदगी का ऐसे सफ़र कर रहे हैं हम
सच है आज कल ज़िन्दगी को दो कदम चल कर पसीना आ जाता है, यह बात जब सब पर रोशन है। एक और शेर में फरमाते हैं:-
रज़्ज़ाके-दो जहां मुझे देता है रिज़्के-ग़म
वो दे रहा है और लिये जा रहा हूँ मैं
शायर को परमात्मा से जो कुछ मिल रहा है वह उसे प्रभु की रिज़ा समझ कर क़ुबूल करता है और होंटो पर कोई शिकवा गिला नहीं लाता। शायर की कनाअत ( निस्पृहता) की दाद देनी चाहिए। अंजुम जी का एक और शेर देखें:-
वो पुजारी है नफ़रतों का मगर
परचमे-अम्न ले के चलता है
यानी "हुशियार कि आये हैं सरे-मंज़रे-आम / गुर्गाने-कुहन साल नये जामे में"। पुराने भेड़िये नये लिबास में औए हैं, सभी भेडें हुशियार रहें। "नये लिबास में निकला है रहज़नी का जुलूस"।
ज़िन्दगी की ना-पायदारी और नश्वरता की तरह इशारा करते हुए क्या ही अच्छे अशआर कलम-बन्द किये हैं, कहते हैं:-
- चंद ही रोज़ चहचहाना है
चंद ही दिन का आबो-दाना है
इक सराय है ये जहाँ सारा
काम सारा मुसाफ़िराना है
- जो भी आया है जायेगा आखिर
आरज़ी इस जगह बसेरा है
- था यकीं जिन की पायदारी का
वो फ़क़त बुलबुले थे पानी के।
अंजुम साहिब का विचार है कि पुख्ता इरादे से ही इंसान को कामयाबियां मिलती हैं, मंज़िलें कदम चूमते हैं। मज़बूत इरादे वाले लोगों के दिये तेज़ रौ आंधियां में भी जलते हैं।
- अज़्मे-रासिख ही देखना इक दिन
आंधियां मव दीया जलायेगा
- कट ही जायेगी रात भी ग़म की
मेरी नज़रों में इक सवेरा है।
कुछ चेहरे ऐसे खुश बख़्त,खुश इक़बाल, बख्तावर और इक़बाल मन्द होते हैं कि उन के दर्शन कर के काम पर निकलें तो सभी काम सिद्ध हिट चले जाते हैं। कुछ चेहरे मनहूस और मकरूह होते हैं, बने बनाए काम बिगाड़ने वाले। अंजुम साहिब फरमाते हैं-
उन का दीदार कर के ऐ अंजुम
शेर कहते तो नाम हो जाता
देश प्रेम के विषय पर शायरों ने हर दौर में शेर कहे हैं और रंगा रंगी पैदा करने कज कोशिश की है, लेकिन अंजुम साहिब का अंदाज़ जुदागाना हैसियत का हामिल है।
- शाख़ की खैर मांगता हूँ मैं
शाख़ ओर मेरा आशियाना है
यहां शाख़ से मुराद प्यारा भारत है।
ज़िन्दगी इंसान को अपने कई रंग दिखाती है, कभी अच्छा कभी बुरा किन्तु अंजुम को ख़ुदा की ज़ात, ख़ुदा के फ़ैज़ पर पूरा विश्वास है
अंजुम ख़ुदा के फ़ैज़ से मायूस तो न हो
जामे कई बदल के फिर आती है ज़िन्दगी
एक शेर देखिये! किस शान का मज़ेदार शेर है-
शान से जीना, शाम से मरना
ज़िन्दगी में कई अदा रखना
वक़्त की गर्दिश से अंजुम निराश नहीं होते, बल्कि यह कह कर दिल को तसल्ली देते हैं-
हमें भी साबिका गर्दिश से है तो क्या अंजुम
ये चांद तारे ये सूरज भी तो सफ़र में हैं
"शिमला" पर अंजुम साहिब ने शेर कहे हैं। मुलाहज़ा फरमाएं-
- इक सवेरा है गुनगुनाता हुआ
एक शादाब शाम है शिमला
है ये 'शौक़' ओ 'शबाब' का मसकन
कितना आली मकान है शिमला
शौक़ यानी सुरेश चंद्र शौक़ और शबाब यानी डॉ. शबाब ललित।
रोने वालों के लिए भी अंजुम के पास पैग़ाम है-
तुम को इना है तो महफ़िल न सजा कर रोना
दिल का हर दर्द ज़माने से छुपा कर रोना
वो भी रोयेंगे तो रोने का मज़ा आयेगा
रोने वाले कभी उनको भी रुला कर रोना
लूट खसूट और भ्रष्टाचार के इस मौसम में अंजुम बड़ी विनम्रता से अपना हक़ मांगते हैं कि मेरे हिस्से की टूटी फूटी झोंपड़ी या कोई क्षति ग्रस्त मकान तो रहने दो:-
छोटी सी झोंपड़ी हो कि ख़स्ता मकां रहे
कुछ तो मिरे लिए भी ऐ हिन्दोस्तां रहे
और फिर बेबसी और बेचारगी का इज़हार इस प्रकार करते हैं-
कैसी है ये बिसात जहाने-खराब की
अंजुम हर एक चाल यहां हर रहे हैं हम
आखिर में अंजुम साहिब के कुछ और अशआर पेश कर के इस दास्ताने-दिल पज़ीर को यहीं खत्म करता हूँ। इन अशआर में शायर की आत्मा को भिन्न भिन्न रंगों में देखा जा सकता है-
-शाम उतरी तो शाम के साये
साथ अपने उदासियाँ लाये
-उस ने मानी न एक भी इन की
अर्ज़ करती ही रह गयी आंखें
- गर्दे-ग़म में रस्ते गुम हैं
मंज़िल मंज़िल मात हुई है
- दामे-नफ़रत से रहो दूर महब्बत सीखो
प्यार इंसान को इंसान बना देता है
- करते हैं निगाहों ही निगाहों में जो हम बात
देती हैं हमें मात वो हुशियार निगाहें
- हंसते हुए गुलों की कतारों के दरमियाँ
अफसुर्दगी में ख़ूबी हुई इक कली मिली
- ऐ दिल तुझे ये तेरी खुद्दारियां मुबारक
चलता हूँ हर जगह मैं दुनिया में सर उठा के
- ऐ नसीम-ओ-सबा मिरे घर की
खिड़कियों से भी राबिता रखना
ख़ुदा करे अंजुम साहिब का कलाम दूर दूर तक अपनी शुहरतों की बस्तियां क़ायम करे और उन का फानूसे-सुख़न हमेशा हमेशा जगमगाता रहे।