भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात का अन्धेरा / संज्ञा सिंह
Kavita Kosh से
रात का अन्धेरा
सन्नाटा उगलता हुआ
हिला देता है मुझको
घड़ी की खटकती सुई
घरघराती साँस किसी की
सुनती हूँ चुपचाप
कब और न जाने कैसे
नींद आ गई
रजाई में घुसकर
सपने देखती
उबलते- ऊँघते और ख़ुश होते
सुबह हुई
अन्धेरे के बाद