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रात भर / मनीष मूंदड़ा

रात भर आँखे
तुम्हारे आने की आस को
ज्योत बना
जलती रहीं
अलाव बना
मेरे सपनों की ठिठुरन को तपती रही
रात भर आँखें
तुम्हें ढूँढती रही
तुम नहीं थे,
कहीं भी नहीं
बस डर था
मेरे सपनों के अलावा
जो रात भर
दस्तक देता रहा
मुझे
रात भर
आँखें जलती रही
रात भर यूँ हीं बस
तुम्हें ढूँढती रही...