राम की कृपालुता-6
( छंद संख्या 11,12)
(11)
कौसिक , बिप्रबधू मिथिलाधिपके सब सोच दले पल माहैं।
बालि-दसानन -बंधु -कथा सुनि, सत्रु सुुसाहेब-सीलु सराहैं।।
ऐसी अनूप कहैं तुलसी रघुनायककी अगनी गुनगाहैं।
आरत, दीन, अनाथनको रघुनाथ करैं निज हाथकी छाहैं।11।
(12)
तेरे बेसाहें बेसाहत औरनि, और बेसाहिकै बेचनिहारे।
ब्योम, रसातल, भूमि भरे नृप क्रूर, कुसाहेब सेंतिहुँ खारे।।
‘तुलसी’ तेहि सेवत कौन मरै! रजतें लघुकेा करै मेरूतें भारें?
स्वामि सुसील समर्थ सुजान, सो तो-सो तुहीं दसरत्थ दुलारे।12।