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रिश्ता / रंजना जायसवाल
Kavita Kosh से
उलझकर मनुष्य से रिश्तों में
भूल गयी थी मैं
छत पर रखे उन गमलों को
जिनमें लगे पौधे तक रहे थे मेरी राह
खामोशी से सहते हुए मेरी उदासीन क्रूरता
बिना खाद-पानी और प्रेम के
हवा के सहारे जी रहे थे
उदास और मुरझाए मेरे लिए
जैसे मैं किसी और के लिए
याद आयी मुझे भतृहरि की बात-
‘जिसे चाहो वही चाहता मिलता है
किसी और को।’
थोड़ी सी खाद पानी और अपनेपन की छुअन से
लहलहाने लगे पौधे दो ही चार दिन में
कुछ फूलने तो फलने लगे कुछ
सोच लिया मैंने पाकर उनसे प्रेम का उपहार
अब नहीं तोडूँगी उनसे रिश्ता
उलझकर मनुष्य से रिश्तों में।