रुक्मिनी कृष्ण संवाद / सूरदास
रुकमिनि बूझति हैं गोपालहिं ।
कहौ बात अपने गोकुल की कितिक प्रीति ब्रजबालहिं ॥
तब तुम गाइ चरावन जाते, उर धरते बनमालहिं ।
कहा देखि रीझे राधा सौं, सुंदर नैन बिसालहिं ॥
इतनी सुनत नैन भरि आए, प्रेम बिबस नँदलालहिं ।
सूरदास प्रभु रहे मौन ह्वै, घोष बात जनि चालहिं ॥1॥
रुकमिनी मोहिं निमेष न बिसरत, वे ब्रजबासी लोग ।
हम उनसौं कछु भली न कीन्ही, निसि-दिन मरत बियोग ॥
जदपि कनक मनि रची द्वारिका, विषय सकल संभोग ।
तद्यपि मन जु हरत बंसी-बट, ललिता कैं संजोग ॥
मैं ऊधौ पठयौ गोपिनि पै, दैन संदेसौ जोग ।
सूरदास देखत उनकी गति, किहिं उपदेसै सोग ॥2॥
रुकमिनि ब्रज बिसरत नाहीं ।
वह क्रीड़ा वह केलि जमुन तट, सघन कदम की छाहीं ॥
गोप बधुनि की भुजा कंध धरि, बिहरत कुंजनि माहीं ।
और बिनोद कहाँ लगि बरनौं, बरनत बरनि न जाहीं ॥
जद्यपि निधान द्वारवति,गोकुल के सम नाहीं ।
सूरदास घनस्याम मनोहर, सुमिर-सुमिरि पछिताहीं ॥3॥
रुक्मिनि चलौ जन्म भूमि जाहिं ।
जद्यपि तुम्हरौ बिभव द्वारिका, मथुरा कैं सम नाहिं ॥
जमुना कैं तट गाइ चरावत, अमृत जल अँचवाहिं ।
कुंज केलि अरु भुजा कंध धरि, सीतल द्रुम की छाँहि ॥
सरस सुगंध मंद मलयानिल, बिहरत कुंजन माहिं ।
जो क्रीड़ा श्री बृंदावन मैं, तिहूँ लोक मैं नाहिं ॥
सुरभी ग्वाल नंद अरु जसिमति, मन चित तैं न टराहिं ।
सूरदास प्रभु चतुर सिरोमनि, तिनकी सेव कराहिं ॥4॥