किसी वीरान टापू पर
खड़ी हूँ मैं,
एक रेत भरी सीपी की तरह।
जिसका मोती कभी का अपना घर छोड़ चुका है और कभी-कभी मेरे भीतर
हिलोरे लेता है समुद्र।
इतनी गर्जना में मैं सुन पाती हूँ
भीतर उपजी चाहतों को
अपनी चाहतों को
सामने पा में भरती हूँ उनमें समुद्री नीला रंग।
विडंबना है
समुद्र!
तुम्हारा नहीं है यह नीला रंग।
तुमने उधार लिया है आकाश से।
अस्ताचल का गहरा सुरमई रंग,
तुम्हारी लहरों में दिखता है।
लेकिन यह भी तुम्हारा नहीं।
तुमने उधार लिया है डूबते सूरज से।
फिर तुम्हारा अपना क्या है समुद्र?
ये उत्तांग लहरें? ज्वार भाटा?
तुमने यह भी चंद्रमा से उधार लिया।
फिर वही सवाल? अपना क्या है तुममें समुद्र?
बस असीम विस्तार।
कभी तो शांत हो जाओ
और सुनो एक कंकर की ध्वनि
जो मैं तुम्हारे भीतर फेंकना चाहती हूँ।
और!
सुख से आंखें मूंद लेना चाहती हूँ।