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रेलवे स्टेशन / दिनेश कुमार शुक्ल

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अक्सर कहीं जाने के लिए
लोग वहाँ आते हैं

गाते हुए रोते हुए
थके और ऊबे हुए
कुछ ख़ुद में डूबे हुए
कुछ मौजमस्ती में
और कुछ पस्ती में

याने कि
हर तरह लोग
आते हैं कहीं से
और कहीं चले जाते हैं

गाड़ी चली जाती है
और कुछ लोग
छूट जाते हैं,
और कुछ छिटक कर
दूर जा गिरते हैं
काल प्रवाह की भॅंवर में,
फिर भॅंवर में फॅंसकर
वहीं चक्कर काटते हैं
क्योंकि उनके पास
कोई गन्तव्य नहीं,
या फिर
उनके लिए निरर्थक हैं
वे गन्तव्य
जहाँ जाती हैं गाड़ियाँ

और वे
वहीं जम जाते हैं
प्लेटफॉर्म पर या
स्टेशन के आसपास,
वहीं रम जाते हैं,
तलछट की तरह
वे जम जाते हैं
अपने ज़माने की पेंदी में

यद्यपि
समझते हैं वे
सभ्यता की परेशानी
समझते हैं
उसका अपराधबोध
और वे अप्रत्यक्ष
ही रहना चाहते हैं-
किन्तु तलछट
पारदर्शी नहीं होती

वह खटकती है
भद्रलोगों की आँखों में
किरकिरी की तरह,
वह होती है ढीठ
भारी भरकम
और उदास रंगों की तरह,

वह गले में लटके
पत्थर की तरह
सभ्यता को पहुँचने
ही नहीं देती आसमान तक

अंगद की तरह
तलछट में जमे हुए लोग
सभ्यता के रावण से

कभी कभी
पैर भी पकड़वाते हैं,
सभ्यता उनका कुछ नहीं
उखाड़ पाती
और वे
अपनी झुग्गियों के साथ
वहीं जमे रहते हैं
अंगद के पाँव की तरह।