भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रोज़ थोड़ा पिघल रहा हूं मैं / ध्रुव गुप्त
Kavita Kosh से
रोज़ थोड़ा पिघल रहा हूं मैं
मेरा चेहरा बदल रहा हूं मैं
मुझको कोई कुरेदकर देखे
न बुझा हूं, न जल रहा हूं मैं
मेरा आग़ाज कब मुक़र्रर है
बारहा कल पे टल रहा हूं मैं
यूं गुज़रना हुआ है रिश्तों से
जैसे रस्सी पे चल रहा हूं मैं
मेरे हिस्से का आसमां है कहीं
अब तलक बेदख़ल रहा हूं मैं
मुझको जाने कहां पहुंचना है
गिर रहा हूं, संभल रहा हूं मैं
तेरे सिवा भी हो ज़हां शायद
तुझसे बाहर निकल रहा हूं मैं
मेरा मक़ता अभी कहा न गया
नामुकम्मल ग़ज़ल रहा हूं मैं