लोकोक्तियों मिथकों आख्यानों 
और धार्मिक कथाओं के हवाले से
स्त्रियों को 
पुरुष सत्ता ने दिये हैं 
न जानें कितने ही अघोषित
उजले दीखने वाले बंदी गृह
हर बार घटी हैं वह
कहा गया जब उसे देवी! 
वस्तु में बदलती गई बारहा तब 
प्रतिरोध में कुनमुनाई 
जब कभी उसकी देह की भाषा 
जख्मी कर लौटा दी गई
अंतहीन चुप्पियों की खोह में
गुलाम स्त्री की परंपरा की इबारतें
दबी हैं इतिहास के धूसर शिला लेखों पर
वह छद्मवेशी पसार रही है अपने पांव
वर्तमान स्त्री अस्मिता तक
 
हमसे पार हो वह बढे आगे 
हमारी बेटियों तक
इसकी हम किर्च भर 
गुंजाइश नहीं छोड़ेंगे
हम बनाएंगे उन्हें मजबूत
थमाएँगे उनके हाथों संविधान! (स्वविधान) 
तोड़ेंगी वे युगों की
बेड़ियाँ सांकलें
गलीज परम्पराओ के इशारों पर 
बेटियाँ नहीं नाचेंगी
खूंटे से बंधी गलत निर्णयों की 
नही करेंगी जुगाली 
वे धरती पर उपज आई खरपतवार नहीं हैं 
वे धरती पर रोपी गई 
प्रकृति की जरूरी पौध हैं 
कोख हैं
मनुष्य के जीवित इतिहास का