लक्ष्मी-समुद्र-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी
मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी
मुरछि परी पदमावति रानी । कहाँ जीउ, कहँ पीउ, न जानी ॥
जानहु चित्र-मूर्त्ति गहि लाई । पाटा परी बही तस जाई ॥
जनम न सहा पवन सुकुवाँरा । तेइ सो परी दुख-समुद अपारा ॥
लछिमी नाँव समुद कै बेटी । तेहि कहँ लच्छि होइ जहँ भेंटी ॥
खेलति अही सहेलिन्ह सेंती । पाटा जाइ लाग तेहि रेती ॥
कहेहि सहेली "देखहु पाटा । मूरति एक लागि बहि घाटा ॥
जौ देखा, तिवई है साँसा । फूल मुवा, पै मुई न बासा ॥
रंग जो राती प्रेम के ,जानहु बीर बहूटि ।
आइ बही दधि-समुद महँ, पै रंग गएउ न छूटि ॥1॥
लछिमी लखन बतीसौं लखी । कहेसि "न मरै, सँभारहु, सखी !॥
कागर पतरा ऐस सरीरा । पवन उडाइ परा मँझ नीरा ॥
लहरि झकोर उदधि-जल भीजा । तबहूँ रूप-रंग नहिं छीजा "
आपु सीस लेइ बैठी कोरै । पवन डोलावै सखि चहुँ ओरै ॥
बहुरि जो समुझि परा तन जीऊ । माँगेसि पानि बोलि कै पीऊ ॥
पानि पियाइ सखी मुख धोई । पदमिनि जनहुँ कवँल सँग कोईं ॥
तब लछिमी दुख पूछा ओही । तिरिया समुझि बात कछु मोहीं ॥
देखि रूप तोर आगर, लागि रहा चित मोर ।
केहि नगरी कै नागरी, काह नाँव धनि तोर ?" ॥2॥
नैन पसार देख धन चेती । देखै काह, समुद कै रेती ॥
आपन कोइ न देखेसि तहाँ । पूछेसि, तुम हौ को? हौं कहाँ ?॥
कहाँ सो सखी कँवल सँग कोई । सो नाहीं मोहिं कहाँ बिछोई ॥
कहाँ जगत महँ पीउ पियारा । जो सुमेरु, बिधि गरुअ सँवारा ॥
ताकर गरुई प्रीति अपारा । चढी हिये जनु चढा पहारा ॥
रहौं जो गरुइ प्रीति सौं झाँपी । कैसे जिऔं भार-दुख चाँपी? ॥
कँवल करी जिमि चूरी नाहाँ । दीन्ह बहाइ उदधि जल माहाँ ॥
आवा पवन बिछोह कर, पात परी बेकरार ।
तरिवर तजा जौ चूरि कै, लागौं केहि के डार ? ॥3॥
कहेन्हि" न जानहिं हम तोर पीऊ । हम तोहिं पाव रहा नहिं जीऊ ॥
पाट परी आई तुम बही । ऐस न जानहिं दुहुँ कहँ अही" ।
तब सुधि पदमावति मन भई । सवरि बिछोह मुरुछि मरि गई ॥
नैनहिं रकत-सुराही ढरै । जनहुँ रकत सिर काटे परै ॥
खन चेतै खन होइ बेकरारा । भा चंदन बंदन सब छारा ॥
बाउरि होइ परी पुनि पाटा । देहुँ बहाइ कंत जेहि घाटा ॥
को मोहिं आगि देइ रचि होरी । जियत न बिछुरै सारस-जोरी ॥
जेहि सिर परा बिछोहा, देहु ओहि सिर आगि ।
लोग कहैं यह सिर चढी, हौं सो जरौं पिउ लागि ॥4॥
काया-उदधि चितव पिउ पाँहा । देखौं रतन सो हिरदय माहाँ ॥
जनहुँ आहि दरपन मोर हीया । तेहि महँ दरस देखावै पीया ॥
नैन नियर, पहुँचत सुठि दूरी । अब तेहि लागि मरौं मैं झूरी ॥
पिउ हिरदय महँ भेंट न होई । को रे मिलाव, कहौं केहि रोई ?॥
साँस पास निति आवै जाई । सो न सँदेस कहै मोहिं आई ॥
नैन कौडिया होइ मँडराहीं । थिरकि मार पै आवै नाहीं ॥
मन भँवरा भा कँवल-बसेरी । होइ मरजिया न आनै हेरी ॥
साथी आथि निआथि जो सकै साथ निरबाहि ।
जौ जिउ जारे पिउ मिलै, भेंटु रे जिउ ! जरि जाहि ॥5॥
सती होइ कहँ सीस उघारा । घन महँ बीजु घाव जिमि मारा ॥
सेंदुर, जरै आगि जनु लाई । सिर कै आगि सँभारि न जाई ॥
छूटि माँग अस मोति-पिरोई । बारहिं बार जरै जौं रोई ॥
टूटहिं मोति बिछोह जो भरै । सावन-बूँद गिरहिं जनु झरे ॥
भहर भहर कै जोबन बरा । जानहुँ कनक अगिनि महँ परा ॥
अगिनि माँग, पै देइ न कोई । पाहुन पवन पानि सब कोई ॥
खीन लंक टूटी दुखभरी । बिनु रावन केहि बर होइ खरी ॥
रोवत पंखि बिमोहे जस कोकिल-अरंभ ।
जाकर कनक-लता सो बिछुरा पीतम खंभ ॥6॥
लछिमी लागि बुझावै जीऊ ।"ना मरु बहिन! मिलिहि तोर पीऊ ॥
पीउ पानि, होइ पवन -अधारी । जसि हौं तहूँ समुद कै बारी ॥
मैं तोहि लागि लेउँ खटवाटू । खोजहि पिता जहाँ लगि घाटू ॥
हौं जेहि मिलौं ताहि बड भागू । राजपाट औ देऊँ सोहागू "॥
कहि बुझाइ लेइ मंदिर सिधारी । भइ जेवनार न जेंवै बारी ॥
जेहि रे कंत कर होइ बिछोवा । कहँ तेहि भूख, कहाँ सुख-सोवा ?॥
कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसा । को अस तेहि सौं कहै सँदेसा ?॥
लछिमी जाइ समुद पहँ रोइ बात यह चालि ।
कहा समुद "वह घट मोरे, आनि मिलावौं कालि" ॥7॥
राजा जाइ तहाँ बहि लागा । जहाँ न कोइ सँदेसी कागा ॥
तहाँ एक परबत अस डूँगा । जहँवाँ सब कपूर औ मूँगा ॥
तेहि चढि हेर कोइ नहिं साथा । दरब सैंति किछु लाग न हाथा ॥
अहा जो रावन लंक बसेरा । गा हेराइ, कोइ मिला न हेरा ॥
ढाढ मारि कै राजा रोवा । केइ चितउरगढ-राज बिछोवा ?॥
कहाँ मोर सब दरब भँडारा । कहाँ मोर सब कटक खँधारा ?॥
कहाँ तुरंगम बाँका बली । कहाँ मोर हस्ती सिंघली ? ॥
कहँ रानी पदमावति जीउ बसै जेहि पाहँ ।
'मोर मोर' कै खोएउँ, भूलि गरब अवगाह ॥8॥
भँवर केतकी गुरु जो मिलावै । माँगै राज बेगि सो पावै ॥
पदमिनि-चाह जहाँ सुनि पावौं । परौं आगि औ पानि धँसावौं ॥
खोजौं परबत मेरु पहारा । चढौं सरग औ परौं पतारा ॥
कहाँ सो गुरु पावौं उपदेसी । अगम पंथ जो कहै गवेसी ॥
परेउँ समुद्र माहँ अवगाहा । जहाँ न वार पार, नहि थाहा ॥
सीता-हरन राम संग्रामा । हनुवँत मिला त पाई रामा ॥
मोहिं न कोइ, बिनवौं केहि रोई । को बर बाँधि गवेसी होई ?॥
भँवर जो पावा कँवल कहँ, मन चीता बहु केलि ।
आइ परा कोइ हस्ती, चूर कीन्ह सो बेलि ॥9॥
काहि पुकारौं, का पहँ जाऊँ । गाढे मीत होइ एहि ठाऊँ ॥
को यह समुद मथै बल गाढै । को मथि रतन पदारथ काढै ? ॥
कहाँ सो बरह्मा, बिसुन महेसू । कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसू? ॥
को अस साज देइ मोहिं आनी । बासुकि दाम, सुमेरु मथानी ॥
को दधि-समुद मथै जस मथा ? करनी सार न कहिए कथा ॥
जौ लहि मथै न कोइ देइ जीऊ । सूधी अँगुरि न निकसै घीऊ ॥
लेइ नग मोर समुद भा बटा । गाढ परै तौ लेइ परगटा ॥
लीलि रहा अब ढील होइ पेट पदारथ मेलि ।
को उजियार करै जग झाँपा चंद उघेलि ?॥10॥
ए गोसाइँ! तू सिरजन हारा । तुइँ सिरजा यह समुद अपारा ॥
तुइँ अस गगन अंतरिख थाँभा । जहाँ न टेक, न थूनि, न खाँभा ॥
तुइँ जल ऊपर धरती राखी । जगत भार लेइ भार न थाकी ॥
चाँद सुरुज औ नखतन्ह -पाँती । तोरे डर धावहिं दिन राती ॥
पानी पवन आगि औ माटी । सब के पीठ तोरि है साँटी ॥
सो मूरुख औ बाउर अंधा । तोहि छाँडि चित औरहि बंधा ॥
घट घट जगत तोरि है दीठी । हौं अंधा जेहि सूझ न पीठी ॥
पवन होइ भा पानी, पानि होइ भा आगि ।
आगि होइ भा माटी, गोरखधंधै लागि ॥11॥
तुइँ जिउ तन मेरवसि देइ आऊ । तुही बिछोवसि, करसि मेराऊ ॥
चौदह भुवन सो तोरे हाथा । जहँ लगि बिधुर आव एक साथा ॥
सब कर मरम भेद तोहि पाहाँ । रोवँ जमावसि टूटै जाहाँ ॥
जानसि सबै अवस्था मोरी । जस बिछुरी सारस कै जोरी ॥
एक मुए ररि मुवै जो दूजी । रहा न जाइ, आउ अब पूजी ॥
झूरत तपत बहुत दुख भरऊँ । कलपौं माँथ बेगि निस्तरऊँ ॥
मरौं सो लेइ पदमावति नाऊँ । तुइँ करतार करेसि एक ठाऊँ ॥
दुख सौं पीतम भेंटि कै, सुख सौं सोव न कोइ ।
एहि ठाँव मन डरपै, मिलि न बिछोहा होइ ॥12॥
कहि कै उठा समुद पहँ आवा । काढि कटार गीउ महँ लावा ॥
कहा समुद्र, पाप अब घटा । बाह्मन रूप आइ परगटा ॥
तिलक दुवादस मस्तक कीन्हे । हाथ कनक-बैसाखी लीन्हे ॥
मुद्रा स्रवन, जनेऊ काँधे । कनक-पत्र धोती तर बाँधे ॥
पाँवरि कनक जराऊँ पाऊँ । दीन्हि असीस आइ तेहि ठाऊँ ॥
कहसि कुँवर! मोसौं सत बाता । काहे लागि करसि अपघाता ॥
परिहँस मरस कि कौनिउ लाजा । आपन जीउ देसि केहि काजा ॥
जिनि कटार गर लावसि, समुझि देखु मन आप ।
सकति जीउ जौं काढै , महा दोष औ पाप ॥13॥
को तुम्ह उतर देइ, हो पाँडे । सो बीलै जाकर जिउ भाँडे ॥
जंबूदीप केर हौं राजा । सो मैं कीन्ह जो करत न छाजा ॥
सिंघलदीप राजघर-बारी । सो मैं जाइ बियाही नारी ॥
बहु बोहित दायज उन दीन्हा । नग अमोल निरमर भरि लीन्हा ॥
रतन पदारथ मानिक मोती । हुतीन काहु के संपति ओती ॥
बहल,घोड, हस्ती सिंघली । और सँग कुँवरि लाख दुइ चलीं ।
ते गोहने सिंघल पदमिनी । एक सो एक चाहि रुपमनी ॥
पदमावती जग रूपमति, कहँ लगि कहौं दुहेल ।
तेहिं समुद्र महँ खोएउँ, हौं का जिओ अकेल ?॥14॥
हँसा समुद, होइ उठा अँजोरा । जग बूडा सब कहि कहि 'मोरा ॥
तोर होइ तोहि परे न बेरा । बूझि बिचारि तहुँ केहि केरा ॥
हाथ मरोरि धुनै सिर झाँखी । पै तोहि हिये न अघरै आँखी ॥
बहुतै आइ रोइ सिर मारा । हाथ न रहा झूठ संसारा ॥
जो पै जगत होति फुर माया । सैंतत सिद्धि न पावत, राया ! ॥
सिद्धै दरब न सैंता गाडा । देखा भार चूमि कै छाडा ॥
पानी कै पानी महँ गई । तू जो जिया कुसल सब भई ॥
जा कर दीन्ह कया जिउ, लेइ चाह जब भाव ।
धन लछिमी सब थअकर, लेइ त का पछितावा ?॥15॥
अनु, पाँडे! पुरुषहि का हानी । जौ पावौं पदमावति रानी ॥
तपि कै पावा ,मिली कै फूला । पुनि तेहि खौइ सोइ पथ भूला ॥
पुरुष न आपनि नारि सराहा । मुए गए सँवरै पै चाहा ॥
कहँ अस नारी जगत उपराहीं ?। कहँ अस जीवन कै सुख-छाहीं ? ॥
कहँ अस रहस भोग अब करना । ऐसे जिए चाहि भल मरना ॥
जहँ अस परा समुद नग दीया । तहँ किमि जिया चहै मरजीया ? ॥
जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँ । देइ हत्या झगरौं सिवलोका ॥
का मैं ओहि क नसअवा, का सँवरा सो दाँव ?।
जाइ सरग पर होइहि एहि कर मोर नियाव ॥16॥
जौ तु मुवा, कित रोवसि खरा ? ना मुइ मरै, न रौवै मरा ॥
जो मरि भा औ छाँडेसि काया । बहुरि न करै मरन कै दाँया ॥
जो मरि भएउ न बूडै नीरा । बहा जाइ लागै पै तीरा ॥
तुही एक मैं बाउर भेंटा । जैस राम, दसरथ कर बेटा ॥
ओहू नारि कर परा बिछोवा । एहि समुद महँ फिरि फिरि रोवा ॥
उदधि आइ तेइ बंधन कीन्हा । इति दशमाथ अरमपद दीन्हा ॥
तोहि बल नाहिं-मूँदु अब आँखी । लावौ तीर, टेक बैसाखी ॥
बाउर अंध प्रेम कर सुनत लुबधि भा बाट ।
निमिष एक महँ लेइगा पदमावति जेहि घाट ॥17॥
पदमावति कहँ दुख तस बीता । जस असोक-बीरो तर सीता ॥
कनक लता दुइ नारँग फरी । तेहि के भार उठि होइ न खरी ॥
तेहि पर अलक भुअंगिनि डसा । सिर पर चढै हिये परगसा ॥
रही मृनाल टेकि दुख-दाधी । आधी कँवल भई, ससि आधी ॥
नलिन -खंड दुइ तस करिहाऊ । रोमावली बिछूक कहाऊँ ॥
रही टूटि जिमि कंचन-तागू । को पिउ मेरवै, देइ सोहागू ॥
पान न खाइ करै उपवासू । फुल सूख, तन रही न बासू ॥
गगन धरति जल बुडि गए, बूडत होइ निसाँस ।
पिउ पिउ चातक ज्यों ररै, मरै सेवाति पियास ॥18॥
लछिमी चंचल नारि परेवा । जेहि सत होइ छरै कै सेवा ॥
रतनसेन आवै जेहि घाटा । अगमन होइ बैठी तेहि बाटा ॥
औ भइ पदमावति कै रूपा । कीन्हेसि छाँह जरै जहँ धूपा ॥
देखि सो कँवल भँवर होइ धावा । साँस लीन्ह, वह बास न पाबा ॥
निरखत आइ लच्छमी दीठी । रतनसेन तब दीन्ही पीठी ॥
जौ भलि होति लच्छमी नारी । तजि महेस कत होत भिखारी ?॥
पुनि धनि फिरि आगे होइ रोई । पुरुष पीठि कस दीन्ह निछोई ?॥
हौं रानी पदमावति, रतनसेन तू पीउ ।
आनि समुद महँ छाँडेहु, अब रोवौं देइ जीउ ॥19॥
मैं हौं सोइ भँवर औ भोजू लेत फिरौं मालति कर खौजू ॥
मालति नारि, भँवर पीऊ । लहि वह बास रहै थिर जीऊ ॥
का तुइँ नारि बैठि अस रोई । फूल सोइ पै बास न सोई ॥
भँवर जो सब फूलन कर फेरा । बास न लेइ मालतिहि हेरा ॥
जहाँ पाव मालति कर बासू । वारै जीउ तहाँ होइ दासू ॥
कित वह बास पवन पहुँचावै । नव तन होइ, पेट जिउ आवै ॥
हौं ओहि बास जीउ बलि देऊँ । और फूल कै बास न लेऊँ ॥
भँवर मालतिहि पै चहै, काँट न आवै दीठि ।
सौंहैं भाल खाइ, पै फिरि कै देइ न पीठि ॥20॥
तब हँसि कह राजा ओहि ठाऊँ । जहाँ सो मालति लेइ चलु, जाऊँ ॥
लेइ सो आइ पदमावति पासा । पानि पियावा मरत पियासा ॥
पानी पिया कँवल जस तपा । निकसा सुरुज समुद महँ छपा ॥
मैं पावा पिउ समुद के घाटा । राजकुँवर मनि दिपै ललाटा ॥
दसन दिपै जस हीरा जोती । नैन-कचोर भरे जनु मोती ॥
भुजा लंक डर केहरि जीता । मूरत कान्ह देख गोपीता ॥
जस राजा नल दमनहि पूछा । तस बिनु प्रान पिंड है छूँछा ॥
जस तू पदिक पदारथ, तैस रतन तोहि जोग ।
मिला भँवर मालति कहँ, करहु दोउ मिलि भोग ॥21॥
पदिक पदारथ खीन जो होती । सुनतहि रतन चढी मुख जोती ॥
जानहुँ सूर कीन्ह परगासू । दिन बहुरा, भा कँवल-बिगासू ॥
कँवल जो बिहँसि सूर-मुख दरसा । सूरुज कँवल दिस्टि सौं परसा ॥
लोचन-कँवल सिरी-मुख सूरू । भएउ अनंद दुहूँ रस-मूरू ॥
मालति देखि भँवर गा भूली । भँवर देखि मालति बन फूली ॥
देखा दरस, भए एक पासा । वह ओहि के, वह ओहि के आसा ॥
कंचन दाहि दीन्हि जनु जीऊ । ऊवा सूर, छूटिगा सीऊ ॥
पायँ परी धनि पीउ के, नैनन्ह सों रज मेट ।
अचरज भएउ सबन्ह कहँ, भइ ससि कवलहिं भेंट ॥22॥
जिनि काहू कह होइ बिछोऊ । जस वै मिलै मिलै सब कोऊ ॥
पदमावति जौ पावा पीऊ । जनु मरजियहि परा तन जीऊ ॥
कै नेवछावरि तन मन वारी । पायन्ह परी घालि गिउ नारी ॥
नव अवतार दीन्ह बिधि आजू । रही छार भइ मानुष-साजू ॥
राजा रोव घालि गिउ पागा । पदमावति के पायन्ह लागा ॥
तन जिउ महँ बिधि दीन्ह बिछोऊ । अस न करै तौ चीन्ह न कोऊ ॥
सोई मारि छार कै मेटा । सोइ जियाइ करावै भेंटा ॥
मुहमद मीत जौ मन बसै, बिधि मिलाव ओहि आनि ।
संपति बिपति पुरुष कहँ, काह लाभ, का हानि ॥23॥
लछमी सौं पदमावति कहा । तुम्ह प्रसाद पायउँ जो चहा ॥
जौ सब खोइ जाहि हम दोऊ । जो देखै भल कहै न कोऊ ॥
जे सब कुँवर आए हम साथी । औ जत हस्ति, घोड औ आथी ॥
जौ पावैं, सुख जीवन भोगू । नाहिं त मरन भरन दुख रोगू ॥
तब लछमी गइ पिता के ठाऊँ । जो एहि कर सब बूड सो पाऊँ ॥
तब सो जरी अमृत लेइ आवा । जो मरे हुत तिन्ह छिरिकि जियावा ॥
एक एक कै दीन्ह सो आनी । भा सँतोष मन राजा रानी ॥
आइ मिले सब साथी, हिलि मिलि करहिं अनंद ।
भई प्राप्त सुख-संपति, गएउ छूटि दुख-द्वंद ॥24॥
और दीन्ह बहु रतन पखाना । सोन रूप तौ मनहिं न आना ॥
जे बहु मोल पदारथ नाऊँ । का तिन्ह बरनि कहौं तुम्ह ठाऊँ ॥
तिन्ह कर रूप भाव को कहै । एक एक नग चुनि चुनि कै गहे ॥
हीर-फार बहु-मोल जो अहे । तेइ सब नग चुनि चुनि कै गहे ॥
जौ एक रतन भँजावै कोई । करै सोइ जो मन महँ होई ॥
दरब-गरब मन गएउ भुलाई । हम सब लक्ष्छ मनहिं नहिं आई ॥
लघु दीरघ जो दरब बखाना । जो जेहि चहिय सोइ तेइ माना ॥
बड औ छोट दोउ सम, स्वामी -काज जो सोइ ।
जो चाहिय जेहि काज कहँ, ओहि काज सो होइ ॥25॥
दिन दस रहे तहाँ पहुनाई । पुनि भए बिदा समुद सौं जाई ॥
लछमी पसमावति सौं भेंटी । औ तेहि कहा `मोरि तू बेटी" ॥
दीन्ह समुद्र पान कर बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा ॥
और पाँच नग दीन्ह बिसेखे । सरवन सुना, नैन नहिं देखे ॥
एक तौ अमृत, दूसर हंसू । औ तीसर पंखी कर बंसू ॥
चौथ दीन्ह सावक-सादूरू । पाँचवँ परस, जो कंचन-मूरू ॥
तरुन तुरंगम आनि चढाए । जल -मानुष अगुवा सँग लाए ॥
भेंट-घाँट कै समदि तब फिरे नाइकै माथ ।
जल-मानुष तबहीं फिरे जब आए जगनाथ ॥26॥
जगन्नाथ कहँ देखा आई । भोजन रींधा भात बिकाई ॥
राजै पदमावति सौं कहा । साँठि नाठि, किछु गाँठि न रहा ॥
साँठि होइ जेहि तेहि सब बोला । निसँठ जो पुरुष पात जिमि डोला ॥
साँठहि रंक चलै झौंराई । निसँठराव सब कह बौराई ॥
साँठिहि आव गरब तन फूला । निसँठहि बोल, बुद्धि बल भूला ॥
साँठिहि जागि नींद निसि जाई । निसँठहि काह होइ औंघाई ॥
साँठिहि दिस्टि, जोति होइ नैना । निसँठ होइ, मुख आव न बैना ॥
साँठिहि रहै साधि तन, निसँठहि आगरि भूख ।
बिनु गथ बिरिछ निपात जिमि ठाढ ठाढ पै सूख ॥ 27॥
पदमावति बोली सुनु राजा । जीउ गए धन कौने काजा ?॥
अहा दरब तब कीन्ह न गाँठी । पुनि कित मिलै लच्छि जौ नाठी ॥
मुकती साँठि गाँठि जो करै । साँकर परे सोइ उपकरै ॥
जेहि तन पंख, जाइ जहँ ताका । पैग पहार होइ जौ थाका ॥
लछमी दीन्ह रहा मोहिं बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा ॥
काढि एक नग बेगि भँजावा । बहुरी लच्छि, फेरि दिन पावा ॥
दरब भरोस करै जिनि कोई । साँभर सोइ गाँठि जो होई ॥
जोरि कटक पुनि राजा घर कहँ कीन्ह पयान ।
दिवसहि भानु अलोप भा, बासुकि इंद्र सकान ॥28॥
(1) न जानी = न जानें । अही = थी । सेंती = से । रेती = बालू का किनारा । तीवइ = स्त्री में ।
(2) कागर = कागज । पतरा = पतला । उडाइ = उडकर । कौरै = गोद में । बोलि कै = पुकारकर । समुझि = सुध करके ।
(3) चेती = चेत करके, होश में आकर । देखै काह = देखती क्या है कि । झाँपी = आच्छादित । चाँपी = दबी हुई । चूरी = चूर्ण किया । लागौं केहहि के डार = किसकी डाल लगूँ अर्थात् किसका सहारा लूँ ?
(4) पाव = पाया । सँवरि = स्मरण करके । सर चिता ।
(5) थिरकि मार = थिरकता या चारों ओर नाचता है । साथी....निरबाहि = साथी वही है जो धन और दरिद्रता दोनों में साथ निभा सके । आथि = सार,पूँजी । निआथि = निर्धनता । घन महँ...मारा = काले बालों के बीच माँग ऐसी है जैसे बिजली की दरार । भहर भहर = जगमगाता हुआ । माँग = माँगती है । पाहुन पवन...सब कोई = मेहमान समझ कर सब पानी देती हैं और हवा करती हैं ।बर = बल,सहारा । अरंभ = रंभ, नाद, कूक ।
(7) बुझावै लागि = समझाने-बुझाने लगी । बारी = लडकी । लेउँ खटवाटू = खटपाटी लूँगी; रूसकर काम-धंधा छोड पडी रहूँगी (स्त्रियों का रूसकर खाना-पीना छोड खाट पर इसलिये पड रहना कि जब तक मेरी बात न मानी जायगी न उठूँगी, `खटपाटी' लेना कहलाता है ) सुख-सोवा = सुख से सोना (साधारण क्रिया का यह रूप बँगला से मिलता है ।) कहाँ सुमेरु...सेसा = आकाश पाताल का अंतर । बात चालि = बात चलाई ।
(8)डूँगा = टीला। खँधारा = स्कंधावार , डेरा, तंबू । अवगाह = अथाह (समुद्र) में ।
(9) चाह = खबर । दँसावौं = धँसूँ । गवेसी = खोजी, ढूँढँनेवाला, गवेषणा करनेवाला । बर वाँधि = रेखा खींचकर, दृढ प्रतिज्ञा करके ( आजकल `वरैया बाँधि' बोलते हैं)
(10) मीत होइ = जो मित्र हो । गाढे =संकट के समय में । दाम = रस्सी । करनी सार ..कथा = करनी मुख्य है, बात कहने से क्या है ? बटा भा = बटाऊ हुआ, चल दिया । ढील होइ रहा = चुपचाप बैठा रहा । उघेलि = खोलकर ।
(11) थाँबा = ठहराया, टिकाया । थूनि = लकडी का बल्ला जो टेक के लिये छप्पर के नीचे खडा किया जाता है । भार न थाकी = भार से नहीं थकी । सब के पीठि....साँटी = सब की पीठ पर तेरी छडी है, अर्थात् सब के ऊपर तेरा शासन है ।
(12) मेरवसि = तू मिलाता है । आउ = आयु । बिछोवसि = बिछोह करता है । मेराऊ = मिलाप । जाहाँ = जहाँ । कलपौं = काटूँ । करेसि = तुम करना ।
(13) पाप अब घटा = यह तो बडा पाप मेरे सिर घटा चाहता है । बैसाखी = लाठी । पाँवरि = खडाऊँ । पाऊँ = पाँव में । काहे लगि = किस लिये । अपघात = आत्मघात । परिहँस = ईर्ष्या ।
(14) तुम्ह = तुम्हें। भाँडे = घट में, शरीर में । ओती = उतनी चाहि । चाहि =बढकर । रूपमनी = रूपवती । दुहेल = दुख ।
(15) तोर...होइ...बेरा = तेरा होता तो तेरा बेडा तुझसे दूर न होता । झाँखी = झीखकर । उघरे = खुलती है । सैंतत सिद्धि...राया = तो हे राजा ! तुम द्रव्य संचित करते हुए सिद्धि पा न जाते । पानी कै...गई = जो वस्तुएँ (रत्न आदि) पानी की थीं वे पानी में गई । लेइ चाह = लिया ही चाहे । जब भाव = जब चाहे ।
(16) अनु = फिर, आगे । फूला = प्रफुल्ल हुआ । चाहि = अपेक्षा, बनिस्बत । मोकाँ = मोकहँ, मुझको । देइ हत्या = सिर पर हत्या चढाकर । दाँव = बदला लेने का मौका ।
(17) मरि भा = मर चुका । दायाँ = दाँव, आयोजन । बाट भा = रास्ता पकडा ।
(18) बीरौ = बिरवा, पेड । दाधी = जली हुई । करिहाउँ = कमर, कटि । बिछूक = बिच्छू । सेवाति =स्वाति नक्षत्र में ।
(19) छरै = छलती है । बाटा = मार्ग में । अगमन = आगे । दीठी = देखा । दीन्ही पीठी = पीठ दी, मुँह फेर लिया ।
(20) खोज = पता । कर फेरा = फेरा करता है । हेरा = ढूँढता है । वारै = निछावर करता है । नव = नया । भाल = भाला ।
(21) लेइ चलुँ, जाउँ = यदि ले चले तो जाऊँ । छपा = छिपा हुआ । कचोर = कटोरा । गोपीता = गोपी । दमनहि = दमयंती को । पिंड = शरीर । छूँछा = खाली । पदिक = गले में पहनने का एक चौखूँटा गहना जिसमें रत्न जडे जाते हैं ।
(22) पदिक पदारथ = अर्थात् पद्मावती । बहुरा = लौटा, फिरा । मूरू = मूल, जड । एक पासा = एक साथ । सीऊ = सीत । रज मेट = आँसुओं से पैर की भूल धोती है । भइ ससि कँवलहि भेंट = शशि, पद्मावती का मुख और कमल, राजा के चरण ।
(23) घालि गिउ = गरदन नीचे झुकाकर । मानुष साजू = मनुष्य-रूप में । घालि गिउ पागा = गले में दुपट्टा डालकर । पागा = पगडी । तन जिउ ...चीन्ह न कोऊ = शरीर और जीव के बीच ईश्वर ने वियोग दिया; यदि वह ऐसा न करे तो उसे कोई न पहचाने ।
(24) तुम्ह = तुम्हारे । आथी = पूँजी ,धन । जरी = जडी ।
(25) पखाना = नग, पत्थर । सोन = सोना । रूप = चाँदी तुम्ह ठाऊँ = तुम्हारे निकट, तुमसे । हीर-फार = हीरे के टुकडे । फार = फाल , कतरा, टुकडा । हम सम लच्छ = हमारे ऐसे लाखों हैं ।
(26) पहुनाई = मेहमानी । बिसेखे = विशेष प्रकार के । बंसू =वंश, कुल । सावक-सादूरू = शार्दूल-शावक, सिंह का बच्चा । परस = पारस पत्थर । कंचन-मूरू = सोने का मूल, अर्थात् सोना उत्पन्न करने वाला । जल-मानुष = समुद्र के मनुष्य । अगुवा = पथ-प्रदर्शक संग लाए = संग में लगा दिए । भेंट-घाट = भेंट-मिलाप । समदि =बिदा करके ।
(27) रींधा =पका हुआ । साँठि = पूँजी, धन । नाठि = नष्ट हुई । झौंराई = झूमकर । कह = कहते हैं । औंघाई = नींद । साधि तन = शरीर को संयत करके । आगरि = बढी हुई, अधिक । गथ = पूँजी ।
(28) नाठी = नष्ट हुई । मुकती = बहुत सी, अधिक । साँकर परे = संकट पडने पर । उपकरै = उपकार करती है, काम आती है । साँभर = संबल, राह का खर्च । सकान = डरा ।