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लक्ष्य / महेन्द्र भटनागर

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यदि सूखे युग-अधरों को मुसकान नहीं दे पाये,
अश्रु-विमोचित आँखों में यदि सपने नहीं सजाये,
असमय उजड़ी बगिया को यदि फिर से लहलहा न दी,
सूनी-सूनी डालों को यदि फिर से चहचहा न दी,

तो व्यर्थ तुम्हारा जीवन !

शोषण-अग्नि-दग्ध तन के यदि नहीं मिटाये छाले,
यदि हारे थके उरों में स्पंदित प्राण नहीं डाले,
यदि नहीं घुटन के क्षण में बरसा घर-घर में सौरभ,
और नहीं महका सारा अणु-उद्जन-धूम ग्रसित नभ,

तो व्यर्थ तुम्हारा गायन !

बढ़ता वेग नहीं रोका, यदि प्रतिद्वन्द्वी लहरों का,
हिंसक क्रुद्ध आक्रमक फन यदि कुचला न विषधरों का,
जनयुग-संस्कृति सीता की यदि लज्जा न बचा पाये,
पूँजीशाही रावण को यदि फिर से न मिटा पाये,

तो व्यर्थ तुम्हारा यौवन !