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लखनऊ के घण्टाघर की लड़कियाँ / विनोद भारद्वाज
Kavita Kosh से
सुलभ शौचालय की नहीं ज़रूरत है इन लड़कियों को
तुम उन्हें नहीं रोक पाओगे
उन्हें बोलने दो, इसी में तुम्हारी ख़ैर है
लज्जा तो तुम्हें आनी चाहिए
देखो, वे कविताएँ पढ़ रही हैं
ये कविताएँ कहाँ से निकली हैं
किसी रहस्यमय गुफ़ा से नहीं
ज़िन्दगी की क्रूर सच्चाई से निकलती हैं ऐसी कविताएँ
तानाशाह डर जाते हैं इन कविताओं से
कुर्सी के नीचे उन्हें जगह नहीं मिलती
अपने स्वर्ण शौचालयों की तरफ़ वे भागते हैं बदहवास
ये जब कवि नहीं हैं, तो तुम क्यूँ डरते हो इनसे तानाशाह
वे कविताएँ पढ़ती हैं
और तुम बदहवास उनके अर्थ समझने के लिए उन
शब्दकोशों को चाटते हो
जो दीमकों ने कबके खा लिए हैं
ख़बरदार ! ये कवि नहीं हैं
पर कविताओं से कुछ ख़तरनाक वार करती हैं ।