लजीना ! लाज छोड़ो / अर्चना लार्क
लजीना ! टिकोरों की छीना-झपटी के बीच
क्या तुम अब भी
पेड़ों के बीच अपनी डाल ढूँढ़ लेती हो ?
ऊपर जाना, फिर नीचे आना
कोहनी दरेर लेती हो बार-बार
अपनी कमीज़ को फ़ाहे में लपेट भूल जाती हो सारे दर्द
तुम्हारी प्रार्थनाओं में दूसरे पहले आते हैं
और तुम हमेशा बाद में,
इसका मतलब तो समझती होगी न !
जून की गर्मी और सिंदुरहवा आम के गिरने की मिन्नतें अब भी करती हो
या डालों को झकझोर देती हो
लजीना ! क्या अब भी जीवन
सोलह बरस की उस लड़की की तरह धड़कता है तुम्हारा
तुम अपने रिश्तों को बेधड़क नकार सकती हो न !
धरती का आँचल भी तुमसे छूट गया
तुम कुछ भी तो नहीं बचा पाईं
दोस्त इन दिनों नेमप्लेट से चमचमाती टेबल दिखाते हैं
तुम कुछ भी तो नहीं हो
न दोस्त, न दुश्मन
फिर तुम क्या थी लजीना उन सबके लिए !
तुम बात - बात में टसुए बहाती हो
ये कच्चापन और तुनक मिज़ाजी तुम्हें ले डूब रही है
उकता गए सब तुम्हारी रोज़ रोज़ की उदासी से
अब भी छली जाती हो
इतनी हास्यास्पद क्यों बन गई तुम ?
तुम्हारे ख़िलाफ़ थी नहीं दुनिया
वरक़ दर वरक़ सजाई गई है
नासमझ ही रह गई तुम !
तुमने हर रिस्क में जीवन जिया है
एहसानों का पुलि्न्दा छोड़कर मौत कैसे आएगी, लजीना !
इतनी हताश तुम्हें कभी नहीं देखा
तुम्हारा विश्वास नहीं उठना चाहिए था
आदर्शों पर चौंक-सी जाती हो
पढ़कर भी अशिक्षित रह गई तुम
कुछ शब्दों पर चिल्लाने लगी हो
तुम पागलख़ाने में ख़ुद को ढकेल रही हो
होश में आओ, लजीना !
जंग के बीच तुम ख़ुद को अकेला छोड़ नहीं पाओगी
अनमनाई दुनिया के बीच, बस, जीते जाना है
इच्छा-मृत्यु और समाधि स्थल तुम्हारे लिए नहीं है
दुख तुम्हारी बनाई धारणा है, तोड़ो उसे
लजीना ! लाज छोड़ो और बेहया बन जाओ ।