लम्हा लम्हा तजरबा होने लगा
मैं भी अंदर से नया होने लगा
शिद्दत-ए-ग़म ने हदें सब तोड़ दीं
ज़ब्त का मंज़र हवा होने लगा
फिर नए अरमान शाख़ों को मिले
पŸाा पŸाा फिर हरा होने लगा
ग़ौर से टुक आँख ने देखा ही था
मुझ से हर मंज़र ख़फ़ा होने लगा
रात की सरहद यक़ीनन आ गई
जिस्म से साया जुदा होने लगा
मैं अभी तो आईने से दूर हूँ
मेरा बातिन क्यूँ ख़फ़ा होने लगा
‘दानिश’ अब तीरों की ज़द में आ गया
ज़िंदगी से सामना होने लगा