लम्हे / नीना कुमार
चाक दामन, लिबास-ए-रंजिश; वक़्त का हासिल रहे हैं
क्यूँ उधड़ गए वो धागे जिनसे ज़ख्मों को हम सिल रहे हैं
रुख़सार पर जो इक ग़ज़ल लिखी है, देखो सारे पढ़ रहे हैं
के किताब जैसा चेहरा ले कर, क्यों दोस्तों से मिल रहे हैं
लर्ज़िश-ए-लब गवाह है, ज़ब्त में साज़िश-ए-निगाह है, ..
हर्फ़-ए-बयाँ भी गुमशुदा है के दफ़्न राज़-ए-दिल रहे हैं
दरया-ए-दर्द के ज्वार कितने उभर के खामोश हो गए हैं
के बेज़ार, तेज़-ओ-तल्ख़ लहर को, थामने, साहिल रहे हैं
दश्त-ए-वहशत की ख़ाक से फिर लमहे-लमहे उड़ रहे हैं
के गुबार-ए-सागर का बोझ ढोने क़तरे भी शामिल रहे हैं
उन्हें मुबारक अन्जुमन हो, उन्हें मुबारक बज़्म-ए-दुनिया ..
उदास बातें, उदास सूरत, कब काबिल-ए-महफ़िल रहे हैं
धूल में चाहे नक्श-ए-पा हों, हस्ती भी गर बेमकान हो
यकीन है, लम्हे-माज़ी, मज़ार-ए-वक़्त में मुस्तक़िल रहे हैं