मैं लिखना चाहती हूँ
अपनी क़लम से एक ऐसी कविता
जिसमें ज़िक्र हो रँगों का, प्रेम का,
सुन्दरता का, आदर्शों का, उच्च कोटि
की सामाजिक सभ्यता का, मानवीय संस्कृति का…।
लेकिन जब लिखना शुरू करती हूं
तो शब्द ख़ुद ब ख़ुद चले जाते हैं
उन बेरँग सपनों की तरफ़ जिन्हें
सम्भाले हुए बेबसी से फिरती हैं
हज़ारों आँखें हर तरफ़
उन माननीयों की तरफ़
जो अपनी घृणित सोच के ऊपर
ओढ़े हुए हैं हर रँग के सुन्दर सुन्दर लबादे
ताकि दिखा सकें स्वयं को श्रेष्ठ
उस प्रेम की तरफ़ जो
स्वार्थ से इतर कुछ भी नहीं
उस समाज की तरफ़
जो आदर्श होने का दिखावा तो करता है
परन्तु भीतर से खोखला है
सभ्यता और संस्कृति के दिखावटी
कपड़ों के भीतर बैठा हुआ
बिलकुल नँगा समाज
और जब कहा जाता है मुझे
लिखने को इस संस्कृति पर
एक महागाथा
तब विचलित-सी हो जाती हूँ
यह सोचकर कि
विध्वंस मेरे लिखने से होगा या
न लिखने से ...?