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लौट आया है प्यार / आलोक श्रीवास्तव-२

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एक पन्ना फड़फड़ाता है
धूसर हो गये कुछ अक्षर उभरते हैं

यह प्रेम की पहली कविता है

विंध्य की पर्वत श्रेणियां उभर आती हैं
और उनसे रह रह कर टकराती हवायें
कद्दावर दरख़्तों से घिरा
गुंजारित पूरा एक रहस्यलोक
पूर्णिमा का चांद जिसके आकाश पर थिरक रहा है
और एक पहाड़ी नदी के जल पर
तरंगों से घिरा
एक लड़की का चेहरा....

ये धूसर अक्षर
उस नदी का जल बन गये हैं
थम गयी है हवा और
ठहरे हुए जल पर
फिर वही चेहरा....
सागौन की परछाईयां
चट्टानों के तीखे उभार
बेतरतीब घासों के बीच निचाट एक पगडंडी

इसी पगडंडी से बार बार लौटे हैं
धूप हवा परछाईयां
चैत वसंत और
आषाढ़....

आज फिर जीवन में दाखिल हुआ है प्यार
आज फिर वसंत की रात का चांद है आकाश में

अतीत के इन धूसर अक्षरों में
नये अर्थ उभर आये हैं
लौट रही है चैत की धूप
समुद्र की उत्ताल हलचल पर
सांवल उजास बन कर

खोया हुआ एक चेहरा
जाने किन गांव देशों से होता
लौट आया है मेरे एकांत में

आज फिर वसंत की रात का चांद है आकाश में
आज फिर कल्पना बुन रही है
गोपन कामनाओं का रहस्य-संसार
स्वप्न में लौट रही है
पास आती पहाड़ी धुनों की गूंज

यह लड़की जो मेरे स्वप्न में है
मेरी कामना और मेरे एकांत में,
कौन है ?
चेहरा, आकार, शब्द और सांसे उसकी
ज़द में आती तो हैं
पर तभी सारा उसका वजूद
किसी ख़ला में घुल जाता है

पीछे पहले प्यार की दयनीय याद सरीखा
धूसर वह पन्ना है
बेतरतीब घासों के बीच निचाट एक पगडंडी
और अपना मायालोक समेट कर लौटते
चांद-तारे और ऋतुएं हैं
और आगे यह तिलिस्म
यह ख़ला
इतिहास का यह बियाबान सन्नाटा
उफनते जल से भरी घुमाव लेती एक नदी
जिसके मोड़ पर निर्जन में खड़ा है
एक वीरान किला...

ढही मेहराबों और जर्जर दीवारों वाले इस किले के
एक पोशीदा झरोखे से एक स्त्री
नदी के जल को अटूट देख रही है

वसंत की रात का चांद है आकाश में
और पेड़ोम को झकझोरती
चंपा के फूलों की गंध फिज़ा में बिखेरती
तेज हवायें डोल रही हैं

लावण्य और नारी-सौंदर्य की यह
दिपदिपाती मध्यकालीन प्रतिमूर्ति
नदी में एक चप्पू की छप् छप् होते ही
न जाने कहाँ अचानक लौट जाती है
रह जाती हैं चंपा-सुगंध वाली हवायें
मोड़ पर ख़तरनाक भंवर बनाता
नदी का पानी
अंधेरे में हिलतए हजारों पत्तों की
डरावनी खड़खड़

यह क़िला क्यों याद आता है
इस जगमगाते शहर की रातों से गुजरते ?

किले के झरोखे से विलीन हुआ
क्या वह इस लड़की का चेहरा था
जिसे मैं प्यार करना चाह रहा हूं
मेरे एकांत में जो
धूप के फूल की तरह खिल आया है
कोई जादू क्या उसे रात होते ही
इस वीरान क़िले के झरोखे पर
दूर से आती नाव के चप्पुओं की आवाज
सुनने के लिये छोड़ आता है ?

फिर यह मेरे बगल में कौन है ?
कल इसी नगर के दूसरे छोर से
फोन पर खनकती हंसियों वाली
वह आवाज किसकी थी जिसमें
आज मिलने का वचन था ?

कौन था वह चेहरा
समुद्र की खारी हवायें जिसके बालों से
कल बेतरतीब खेलती रहीं
जिसके जिस्म को उसी की पोशाकों में कसती रहीं
और बार बार दुपट्टा उड़ाती-गिराती
बहुत दूर समुद्र में लौट जाती रहीं ?

और लौट जाती रही वह लड़की
बार बार न जाने किस तिलिस्म
किस ख़ला, किस सन्नाटे में
न जाने किस रास्ते से
किस घर में

और सुनसान समुद्र को देखता
ऊंची उठती लहरों से
उस चेहरे को लौटा देने का अनुनय करता एक साया
हताश चट्टानों पर थक कर बैठ जाता रहा

आधी रात का चांद
लहरों पर उतरते ही
फिर उसी चेहरे की झलक ...

अतीत के उस पुराने पन्ने पर
कहीं पोशीदा है यह चांद
उन्हीं में कहीं वसंत है
उन्हीं में कहीं तुम्हारे घर का पता
तुम्हारी हंसी, तुम्हारी काया का रंग

बार बार निर्जन द्वीपों, वीरान समुद्र तटों
गहन वनों से लौट कर
इस जगमगाते शहर की रातों में तुम्हें खोजता हूं
और तुम मिल भी जाती हो
पर बार बार लौट जाने के लिए क्यों ?

क्यों हमेशा एक रहस्य हो जाने के लिये ?

मेरे थके कंधों पर ठहरा तुम्हारा चेहरा
क्यों इतना उदास है ?

चलो, मैं तुम्हारे साथ खोजूंगा
वसंत का यह खोया चांद
विंध्य की पर्वत-श्रेणियां
चट्टानों से घिरी वह वीरान नदी
तुम अपने अनुभव कहो
नहीं प्यार नहीं
अपना जीवन-सत्य कहो

उजाड़ में एक फूल खिल रहा है

क्या सोचने लगीं तुम ?
देखो डूब रहा है वसंत का चांद
दरख़्तों, मैदानों, घाटियों से
विदा ले रहा है
रात का जादू

तुम इस कदर खा़मोश क्यों हो
गुम अपने में ही ?

लाओ अपनी हथेली इधर दो
ताकि मैं इन्हें चूम सकूं
ताकि बूझ सकूं
तुम्हारे चेहरे पर मर्ज़ हो गये इस पूरे चांद का रहस्य

अब यहां नहीं है
नदी के रहस्यमय घुमाव पर वीरान क़िला
दिन का उजास है
फिर वही खारी लहरें हैं समुद्र की
पर मंद, बहुत आहिस्ता
तुम्हारी लटों से खेलती हवायें
इन्हीं लटों को चूमा है मैंने
और हवा एक गीत बन गयी है
और दूर देशों से
लौट आया है प्यार...