वक्त-३ /गुलज़ार
तुम्हारी फुर्कत में जो गुजरता है,
और फिर भी नहीं गुजरता,
मैं वक्त कैसे बयाँ करूँ , वक्त और क्या है?
कि वक्त बांगे जरस नहीं जो बता रहा है
कि दो बजे हैं,
कलाई पर जिस अकाब को बांध कर
समझता हूँ वक्त है,
वह वहाँ नहीँ है!
वह उड़ चुका
जैसे रंग उड़ता है मेरे चेहरे का, हर तहय्युर पे,
और दिखता नहीं किसी को,
वह उड़ रहा है कि जैसे इस बेकराँ समंदर से
भाप उड़ती है
और दिखती नहीं कहीं भी,
कदीम वजनी इमारतों में,
कुछ ऐसे रखा है, जैसे कागज पे बट्टा रख दें,
दबा दें, तारीख उड़ ना जाये,
मैं वक्त कैसे बयाँ करूँ, वक्त और क्या है?
कभी कभी वक्त यूँ भी लगता है मुझको
जैसे, गुलाम है!
आफ़ताब का एक दहकता गोला उठा के
हर रोज पीठ पर वह, फलक पर चढ़ता है चप्पा
चप्पा कदम जमाकर,
वह पूरा कोहसार पार कर के,
उतारता है, उफुक कि दहलीज़ पर दहकता
हुआ सा पत्थर,
टिका के पानी की पतली सुतली पे, लौट
जाता है अगले दिन का उठाने गोला ,
और उसके जाते ही
धीरे धीरे वह पूरा गोला निगल के बाहर निकलती है
रात, अपनी पीली सी जीभ खोले,
गुलाम है वक्त गर्दिशों का,
कि जैसे उसका गुलाम मैं हूँ !!