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वनहंस / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
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घुग्घू के धूसर पंख उड़ जाते हैं नक्षत्र के प्राणों में-
भीगे खेत छोड़ चाँद के बुलावे पर
बनहंस खोलते हैं पाँख उनके शब्द सुनता हूँ सायँ-सायँ
एक-दो-तीन-चार अजस्र अपार....
रात के किनारे गुस्से से डैना झाड़ते।
दो-तीन इंजन की आवाज़ में भागते-भागते
पड़ारहता फिर नक्षत्र का विशाल आकाश,
हंस देह की गन्ध और दो-एक कल्पना के हंस
याद आता है बहुत पहले मुहल्ले-टोले की अरुणिमा सन्याल का चेहरा,
उड़ते-उड़ते वे पौष की चाँदनी में नीरव
पृथ्वी की सारी ध्वनियाँ और सारे रंगों के मिट जाने पर
हृदय में शब्दहीन ज्योत्स्ना के भीतर,
उड़ते हैं कल्पना के हंस।