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वन-सुग्गा / शिरीष कुमार मौर्य

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पूर्णिमा से ठीक पहले का चाँद है
आकाश में
पौष का अंत
कल माघ होगा
शिवालिक से देखो तो

तराई में भरा झाग दिखता है धुँध का
कुछ ऊपर चंद्रमा
अपनी कलाओं से कुछ ऊबा हुआ-सा
मेरा घर
उसी झाग में कहीं है
न जाने किस

बुलबुले के नीचे
वह गर्म साँस छोड़ता है
तो झाग में
कुछ हलचल होती है
मेरे आँगन में जल रही थोड़ी-सी आग

शीत के उठान पर
मेरी देह के लिए ज़रूरी है
किसी ऐसी ही ऋतु में
कभी कोई ऐसा ही दिन होगा
जब मुझे

बहुत सारी आग की ज़रूरत होगी
किसी जलधारा के ऊपर
मेरा बिछौना होगा
यह लिखते हुए

मैं किसी अवसाद में न मान लिया जाऊँ
प्रमाद में ज़रूर हो सकता हूँ
जीवन को कभी अचानक
और किसी चीज़ की नहीं
प्रमाद की ज़रूरत होती है

जहाँ जीवन की अंतिम अग्नि जलती है
ठीक उसी के नीचे
जीवन की अंतिम जलधारा भी सोती है
जीवन के किसी माघ मास में
अग्नि जलेगी

अभी से कोशिश करूँगा तो उसके नीचे की
जलधारा भी साफ़ रहेगी
जैसे रहते हैं वन-सुग्गे
मैं भी चैत्र मास के किसी रितुरैण में रहूँगा
ऋतुओं के साक्ष्य में ही कहीं
कभी दहूँगा
कभी बहूँगा