भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वह औरत / ज्योति चावला
Kavita Kosh से
वह औरत अपनी लाल साड़ी के आँचल में
बटोर कर ले जा रही है कई फूल सफ़ेद
ऐसे जैसे बटोर कर ले जा रही हो
आसमान से अनगिनत तारे
इन तारों से रौशन करेगी सबसे पहले
वह अपने घर का मन्दिर
हाथों की ओट दे रख देगी एक तारा
मन्दिर के छोटे से दीप में
फिर इन तारों से जलाएगी
रात भर से उदास पड़ा अपना चूल्हा
उसके आँचल में बटोरे यही तारे
उजास भर देंगे फिर पूरे आँगन में
इस तरह, वह औरत
आज फिर
एक नई सुबह को जन्म देगी ।