मेरी जमीन पकने लगी है
इसे थोड़ा पानी दे दो
फसल ..त्योहार ..लोग ..घाव ..दर्द
कि कोई तारतम्य होता तो नहीं
तुम गए तो जाना
ये चीज़ें भी पक जाती हैं एक-न-एक दिन
और डाल से टूटकर बिखर जाते हैं सारे प्रश्न
सुना है ...
आज कुछ लोग मिलने आए हैं ..तुमसे ..तुम्हारे गांव
अछ्रंग खदकाने
रद्दी सरोसामान की वही गांठें खोलने-बांधने ...फिर से
कभी चीमड़ , चपाट आदि-आदि
तुम्हारी ही कोश के निरे बोगस
और आखरी पंक्ति में रेंगनेवाले लोग
आजकल छपे जाने लगे हैं तुम्हारे अंतरंग पन्नों में
मुझे पता है...
कि पीला पड़ चुका है प्रेम
शायद अब हमारे बीच का संबंध पक चुका है
सुनो!
ये हमारी गुजिश्ता इच्छाओं की लाश है
इसे यूं बार-बार चिने जाने से रोक दो
कि अब इन रुदालियों को वापस भेज दो