भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वार्ता:गोरखनाथ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गोरख बाणी

मरो वे जोगी मरो, मरो मरण है मीठा तिस मरणी मरो जिस मरणी गोरख मरि दीठा

हबकि न बोलिबा, ठबकि न चलिबा, धीरे धरीबा पाँव गरब न करिबा, सहजै रहिबा, भणत गौरष रावं

गोरक्ष कहे सुण हरे अवधू , जग में ऐसै रहणां आंषे देषिबा, कानै सुणिबा, मुष थै कछु न कहणा

आसन दृढ़, आहार दृढ़, जो निद्रा दृढ़ होय नाथ कहें सुन बालका, मरे ना बूढ़ा होय

शिव गोरक्ष यह मंत्र है, सर्व सुखों का सार जपो बैठ एकान्त में, तन की सुधी बिसार

शिव गोरक्ष शुभनाम में, शक्ति भरी आगाध न लेने से हैं तर गये, नीच कोटि के व्याध

अजपा जपे शून्य मर धरे, पांचो इंद्रिय निग्रह करे ब्रहम् अग्नि में होमे काया, तासू महादेव बन्दे पाया

मन मूरख समझे नहीं, योगमार्ग की बात अति चंचल भटकत फिरे, करे बहुत उत्पात

मन मन्दिर में वास है, पाप पुण्य का ज्ञान पुण्य रुप मन शुद्ध है, पाप अशुद्ध महान