वास्तविक मित्र / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
कथा सरित्सागरक बिन्दु ई लघु घटना प्राचीन
चन्द्रापीड़ कनौज - नरेशक छल एक सेवक दीन
नाम धवलमुख, तनिक मित्र दुइ वीरबाहु, कल्याण
पत्नी पुछलनि-‘के छथि अहँक अधिक प्रिय? कहू प्रमाण।’
कहल धवलमुख ‘कोना कहू चलि स्वयं जाँचि अहँ लेब’
दुहु दंपति मिलि कल्याणक घर पहुँचल पहिने टेब
स्वागत - सत्कारक न छोर छल भेटल कत उपहार
भय कृतकृत्य तखन दम्पति पहुँचल सुवाहु केर द्वार
चौपड़ि खेलइत कुसल-छेम बुझि लागल फेर खेलाय
नमस्कार कय बिदा भेल पति-पत्नी मन झुझुआय
कहल- ‘केहन ई रुक्ख लोक अछि सरस सुहृद कल्याण!’
‘प्रिये! किन्तु एकसरे जाय पुनि जाँच करिअ कहि आन
एतबा कथा कहब, राजा भेल छथिन क्रोधसँ हाउ
उचित बुझी से करू मदति दुहुसँ ई बुझि-सुझि आउ।’
राज-कोप सुनतहिँ कल्याण कहल-‘हम छी व्यवसायि
कि करब? सुनल सुवाहु, खंग लय दौड़ल ‘नृप अन्यायि!
मित्रहेतु हम लडब-मरब’ कहि ओतय पहुँचि गेल संग
बिदा कयल कहि-सुनि राजा प्रति पुनि अनुकूल प्रसंग
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‘प्रिय! प्रमाण भेटल के वास्तवमित्र के अछि व्यवहारी?
ने केवल आचरण बाहरी, हो अन्तर अधिकारी।’