विंश प्रकरण / श्लोक 1-7 / मृदुल कीर्ति
जनक उवाचः
मेरे निरंजन रूप में, कहाँ पंचभूत विकार हैं,
कहाँ देह, मन, कहाँ इन्द्रियों, कहाँ शून्य पूर्ण प्रकार है.----१
हूँ निर्विषय सब भाव में,न ही द्वंद, है न अद्वंद है,
न तृप्ति, न तृष्णा, न मन, अब आत्मा स्वच्छंद है,------२
मेरे रूप को कहाँ रूपता,विद्या अविद्या है कहाँ?
अहम और ममकार अथवा बंध मोक्ष भी है कहाँ?------३
में निर्विशेष हूँ आत्मा, कहाँ कर्म और प्रारब्ध हैं,
और कहाँ कैवल्य, जीवन मुक्ति आदि प्रबंध हैं.--------४
शेष हैं भोक्तृत्व और कर्तृत्व आत्मानंद है,
निःस्वभावी, स्फुरण कहाँ ज्ञान फल के द्वंद हैं.-------५
स्व - स्वयम का रूप अद्वय , मैं स्वयं ही ज्ञान हूँ,
कहाँ बद्ध और मुमुक्ष, द्वैत के द्वंद, ऋत विज्ञानं हूँ.?-----६
मुझ अद्वैत स्वरुप को, सृष्टि कहाँ संसार है,?
कहाँ साध्य, साधन, सिद्धि साधक, आत्मा का प्रसार है.?----७