विकसित विपिन बसंतिकावली कौ रंग
लखियत गोपिन के अंग पियराने में ।
बौरे वृन्द लसत रसाल-बर बारिनि के
पिक की पुकार है चबाव उमगान में ॥
होत पतझार झार तरुनि-समूहनि कौ
बैहरि बतास लै उसास अधिकाने में ।
काम बिधि बाम की कला मैं मीन-मेष कहा
ऊधौ नित बसत बसंत बरसाने में ॥87॥