भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विकास हो रहा है बल / चिन्तामणि जोशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कट रहे हैं जंगल
क्यूंकि कट रही है सड़क
उड़ रही है धूल
क्यूंकि उड़ रही हैं चट्टानें
डायनामाइट से
हिल रहे हैं पहाड़
बुलावा दे रहा है तबाही को
घाटियों से उठता हुआ गुबार
बचा रहा है मनुष्य पेशीय बल
विकास हो रहा है बल

कट रही हैं लड़कियां
क्यूंकि कट रही हैं गर्भ की दीवारें
अल्ट्रा ध्वनि से
विज्ञान दृष्टि भटकी
गड्ड-मड्ड संतुलन
आंखों में गिद्ध घुस आये हैं
पिट रही है इंसानियत
घिस-पिट चुके संस्कार
चरम पर है बाजार का बल
विकास हो रहा है बल

कट रहे हैं दिन
अपने कल्लू किसान के
क्यूंकि कट गया है
उसका अकेला बचा खेत
चंद रुपयों की एवज में
बहाता था पसीना अच्छा खासा
उगाता था सुबह-शाम आशा
उसके ढाबे के पास से गुजरती है अब
नौ फिटा कंक्रीट की सड़क
धूल फांकता, ताकता रहता है
आती-जाती, उनकी चमचमाती कारों को
वह हो गया निर्बल
विकास हो रहा है बल।