भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विज्ञापन / अवनीश सिंह चौहान
Kavita Kosh से
गटक रहे हैं
लोग यहाँ पर
विज्ञापन की गोली
एक मिनट में
दिख जाती है
दुनिया कितनी गोल
तय होता है
कहाँ -कहाँ कब
किसका कितना मोल
जाने कितने
करतब करती
विज्ञापन की टोली
चाहे या
ना चाहे कोई
मन में चाह जगाती
और रास्ता
मोड़-माड़ कर
घर अपने ले जाती
विज्ञापन की
अदा निराली-
बन जाती हमजोली
ज्ञानी अपना
ज्ञान भूलकर
मूरख बन ही जाता
मूरख तो
मूरख ही ठहरा
कहाँ कभी बच पता
सबके काँधे
धरी हुई है
विज्ञापन की डोली