भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विडंबना / सरोज परमार
Kavita Kosh से
मेरे दोस्त !
जो हाथ तेरा है
उसमें मेरा भे लहू है
ज़िल्द में समाया हुआ है
वक्त के तकाज़ों का प्यार।
जिसकी याद आज भी
लोबान सी
सीने में सुलगती है।
सत्य बहुत बेहुदा है
फिर भी सुनो
बुझने से पहले दिया
आँधी से लड़ना छोड़ देता है
किसी भी सहानुभूति को
गले से नहीं उतरता।
गुज़रे लम्हात की डिबिया में
खूबसूरत मरी हुई
तितली कैद होती है तो
मरे हुए चूहे की बेजान,मुसी
टाँगे भी होती हैं ।
बीनते रही उम्र भर अपना ही अक्स
तेरी गलियों से ।
अपनी ही तेग से अपना ही हाथ
ज़ख्मी करती रही।