ऐसी ठेक लगी थी मन को, हृदय दुखे थे ऐसे
तड़प उठे आषाढ़, तपे सूरज सावन में जैसे
क्षिति में पड़ें दरारें, तरु के पात-पात झर जायें
वनमाली औ’ आशा के दिन कटते जैसे-तैसे
वंद हुई सेवा-कार्यों की हलचल, घाव हरे थे
पीले पात टिके थे मन-डाली पर, हरे झरे थे
दोनों एक-दूसरे को देखते, दृष्टि टकराती
भरे-भरे थे नयन और आनन उतरे-उतरे थे
प्रेम शब्द था बँधा वासना की कटु जंजीरों से
रोम-रोम था बिँधा व्यंग्य के बाणों से, तीरों से
यह कैसा अन्याय, आह! कैसा यह घोर अनय है
मार खा रही हैं निर्दोष चींटियाँ शहतीरों से
जो करते उपकार, स्वप्न में भी परहित रखते हैं
अमिय लुटाते दोनों हाथों, स्वयं गरल चखते हैं
यह कैसा परिहास, कुटिल अघ, यह विडंबना कैसी
सचमुच जो देवता, जगत् को दानव-से दिखते हैं
स्वीकृत कर उपकार, काटते बाँहें उपकारी की
पंख कतर देते कलरव का, सुख ले नभचारी की
यही दिया प्रतिदान विश्व ने आशा-वनमाली को
कली-कली नाँची, बिखेर दी प्रेमिल फुलवारी की
अर्थ प्रेम का किया विलक्षण, बदला दिया अनोखा
गर्हित भाव हृदय में उपजा, दिया दान को धोखा
एक नहीं, दो नहीं, उठीं अनगिनत उँगलियाँ टेढ़ी
नीचे गिरे तलातल में वे नाम लजा पुरखों का
त्याग सिया का किया राम ने एक रजक के मारे
डेग-डेग पर यहाँ रजक हैं, अति कृतघ्न, हत्यारे
जिन्हें वासना की तम-रेखा चहुँदिशि पड़े दिखाई
शुद्ध प्रेम का अर्थ पटकता सिर है जिनके द्वारे
वनमाली चल पड़ा मोड़ मुँह, राम-मड़ैया त्यागी
एकाकिनी रह गयी आशा, त्यक्त, दुखी, हतभागी
पकड़ी डगर पुनः जंगल की, दृग उमड़े आते है।
पीछे मुड़कर नहीं देखता घायल मन वैरागी
वनमाली-आशा की करुण कहानी सिसक रही है
भीँग रही तब से ही सावन में यह तप्त मही है
हुआ, हो रहा होता आयेगा जो इस दुनिया में
प्रेमी-मन के उत्सर्गों की कवि ने कथा कही है