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विरक्ति के मुंह में / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
एक और दिन उड़ गया
कबूतरी गुटरगूं का ।
एक और शाम ढल गई
गुलाब पंखुरियों की ।
एक और रात रो गई
ओस के मोतियों की ।
अब तक अकेला मैं अकेला हूं
विरक्ति के मुंह में,
त्रिकाल को भोगता,
दिन के साथ उड़ता,
शाम के साथ ढलता,
रात के साथ रोता ।
('पंख और पतवार' नामक कविता-संग्रह से)