भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विरज में रोए / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
भूल गया दुख-द्वन्द्व किनारा
जब पाया सामीप्य तुम्हारा
रज में रहे विरज में रोए।
रचनाकाल: १२-०१-१९६२